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* जैन-तत्व प्रकाश * तृष्णा के चंगुल में फंस जाते हैं, वे दासों के भी दास बन कौड़ी-कौड़ी के लिए मोहताज़ बन जाते हैं । जो साधु उपकरणों का अधिक संग्रह करते हैं, वे विहार के समय भारभूत हो जाते हैं। उन्हें प्रतिलेखना आदि में अधिक समय लगाना पड़ता है, जिससे ज्ञान-ध्यान में व्याघात होता है। जो साधु अपने उपकरण गृहस्थ के घर में रखते हैं, उनका प्रतिबन्ध होता है और आरंभसमारंभ भी उन्हें अधिक करना पड़ता है। ऐसे लोभी-लालची साधु का आदर-सत्कार भी कम हो जाता है। इसके विपरीत जो सन्तोषी हैं, जिन्हें अपने शरीर की रक्षा की भी परवाह नहीं है, जो प्राप्त होती इच्छित वस्तु का भी परित्याग कर देते हैं, उन्हें कभी आकुलता-व्याकुलता नहीं होती; वे सन्तुष्ट और सुखी रहते हैं, उनके संकेत मात्र से लाखों का द्रव्य सुकृत में लगता है। मुक्ति-धर्म के धारक साधु का कर्तव्य है कि वह अपने पास की वस्त्र, पात्र आदि किसी भी उत्तम उपधि पर ममत्व धारण न करे। जब उत्तम साधु का योग मिले तो उनसे कहे-'कृपासिन्धो ! मुझ पर दया करके इसे ग्रहण कीजिए और मुझे तारिए।' यदि वे उसे ग्रहण कर लें तो समझना चाहिए कि सचमुच आज कृतार्थ हो गया। मेरे नेत्राय की यह वस्तु ठिकाने लगी-सार्थक हुई। ऐसा विचार कर हर्षित होना चाहिए। इस प्रकार मुक्ति (निर्लोभता) धर्म की आराधना करके उपाध्यायजी सुखी होते हैं ।
(३) आर्जव-कपट का त्याग करना आर्जव धर्म है। 'अन्जु धम्म-गई तच्चं' अर्थात् जिसमें सरलता होगी वह धर्म को धारण सकता है। ऐसा समझकर भीतर और बाहर एक-सा रहना चाहिए । अर्थात् जो बात मन में हो वही वचन से कहना चाहिए और जैसा वचन कहे वैसा ही कर्म करना चाहिए । यथाशक्ति क्रिया का पालन करे और यदि कसर रह जाय तो उसे छिपावे नहीं । दूसरे को उलटा समझाकर अपने दुर्गुणों को सद्गुणों के रूप में परिणत करना उचित नहीं है । कोई पूछे तो अपनी दुर्बलता को स्पष्ट रूप से स्वीकार करना चाहिए। कहना चाहिए कि वीतराग भगवान की
आज्ञा तो ऐसी है, पर मैं उसे पूरी तरह पालन करने में असमर्थ हूँ। मैं जिस दिन भगवान् की आज्ञा को यथातथ्य पालन करूँगा, वह दिन धन्य होगा, परम कल्याणकारी होगा। इस प्रकार कहकर अपनी शुद्धता की