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जैन-तत्त्व प्रकाश
अर्थ — क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है और लोभ सब करता है | ara इनका निम्नलिखित रूप से करना चाहिए ।
सद्गुणों का नाश प्रतीकार ( इलाज )
उवसमे हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायामज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥
- दशवैकालिक सूत्र
क्रोध को उपशम से जीतना चाहिए, मान को मार्दव (मृदुताकोमलता ) से जीतना चाहिए, माया को आर्जव ( सरलता ) से जीतना चाहिए और लोभ को संतोष से जीतना चाहिए ।
यह ५ महाव्रत, ५ आचार, ५ इन्द्रियनिग्रह, ५ समिति, ३ गुप्ति, ६ वा ब्रह्मचर्य की और ४ कषायनिग्रह, सब मिलकर श्राचार्य भगवान् के ३६ गुण होते हैं ।
३६ गुणों के धारक आचार्य
जिनमें निम्नलिखित छत्तीस गुण विद्यमान हों, वही मुनिराज श्राचार्य पदवी के योग्य हो सकते हैं और उन्हीं के द्वारा संघ का अभ्युदय और शासन का प्रचार होता है: - ( १ ) जातिसम्पन्न - जिनका जातिपक्ष (मातृपक्ष ) निर्मल हो । (२) कुलसम्पन्न — जिनका कुल अर्थात् पितृपक्ष निर्मल हो । (३) बलसम्पन्न — काल के अनुसार उत्तम संहनन ( पराक्रम ) से युक्त हों । (४) रूपसम्पन्न – समचतुरस्र संस्थान आदि शरीर का आकार उत्तम हो ( ५ ) विनयसम्पन्न – नम्र - कोमल स्वभाव के धारक हों । (६) ज्ञानसम्पन्न — मति श्रुत यदि निर्मल ज्ञानों के धारक और अनेक मतमतान्तर के ज्ञाता हो । (७) शुद्ध श्रद्धासम्पन्न - दृढ़ सम्यक्त्वी हों। (८) निर्मल चारित्रवान हो । (६) लज्जाशील - अपवाद ( निन्दा ) से संकोच करने वाले । (१०) लाघवसम्पन्न - द्रव्य से उपधि अर्थात् भाण्डोपकरण'
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