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चढ़ते चढ़ते समुद्रपाल को वैराग्य हो आया और उन्होंने अन्त में दीक्षा धारण कर ली । घोर तप और संयम का आचरण करके अत्यन्त दुष्कर क्रिया करके कर्मों का समूल क्षय करके मुक्ति प्राप्त की ।
(८) संवर भावना
* उपाध्याय *
आसव का रुकना संवर कहलाता है । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से स्रव होता है और इन कारणों का परित्याग करके तप, समिति, गुप्ति, चारित्र आदि का अनुष्ठान करने से संवर होता है । संवर के स्वरूप और कारण आदि का चिन्तन करना संवरभावना है । इसका चिन्तन इस प्रकार किया जाता है: - आस्रव ही संसारभ्रमण का प्रधान कारण है और उस स्रव को रोकने का उपाय सिर्फ संवर है । इसलिए मैं समस्त इच्छाओं को रोक कर एकान्त समतारूप धर्म में ही स्थिर होऊँ । इस प्रकार की भावना का श्रीहरिकेशी मुनि ने चिन्तन किया था ।
हरिकेशी मुनि ने पूर्व भव में जाति का मद किया था । इस मद के प्रभाव से, चाण्डाल कुल में उनका जन्म हुआ । उनका वेडौल चेहरा देख कर 'हरिकेशी' नाम रक्खा गया। हरिकेशी जहाँ कहीं जाते, अपने कुड़े और बेडौल रूप के कारण सर्वत्र तिरस्कार और उपहास के पात्र बनते । इससे उकता कर वह आत्मघात करने के लिए तैयार हुए। इसी समय उन्हें एक मुनिराज मिल गये । उन्होंने उपदेश दिया- भाई ! मनुष्यभव चिन्तामणि रत्न के समान अनमोल है । आत्मवात करके क्यों इसे वृथा गँवाते हो ? इस दुर्लभ जीवन का सदुपयोग क्यों नहीं करते ? आत्मघात कर लेने के पश्चात् भी सुखी नहीं हो सकोगे, वरन् दुःखों की वृद्धि ही करोगे । इस प्रकार मुनिराज का उपदेश सुनने से हरिकेशी के चित्त में वैराग्य - भावना उत्पन्न हुई। उन्होंने उन्हीं मुनिराज से दीक्षा ग्रहण की और गुरु को नम - स्कार करके मास-मास के मासखमण करने लगे ।