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® जैन-तत्त्व प्रकाश ®
है। उसका चिन्तन इस प्रकार किया जाता है-हे जीव ! तेरा निस्तार (मोक्ष) किस करनी से होगा ? मोक्ष प्राप्त करने का प्रधान साधन सम्यक्त्व है । सम्यक्त्व के अभाव में जीव ऊँची से ऊँची श्रेणी की करनी करके नवग्रैवेयक तक पहुँच चुका; मगर उससे कोई भी परिणाम नहीं निकला ।
आत्मा का तनिक भी कल्याण नहीं हुआ। किन्तु अब सम्यक्त्व प्राप्त करने का अवसर आया है । इसलिए कषाय आदि सम्यक्त्वविरोधी प्रकृतियों का उपशम या क्षय कर के सम्यक्त्व रूपी रत्न को प्राप्त कर। सम्यक्त्व डोरा पिरोई हुई सुई के समान है । डोरा सहित सुई कचरे में गुमती नहीं है, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव संसार में रहता हुआ भी दुःख नहीं पाता और अवश्य निर्वाण प्राप्त करता है । इस प्रकार की बोधिबीज भावना श्रीऋषभदेव के 80 पुत्रों ने भायी थी। ___भ० ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र श्रीभरत चक्रवर्ती भरतक्षेत्र के छहों खण्डों पर विजय प्राप्त करके वापिस लौटे । फिर भी चक्ररत्न ने श्रायुधशाला में प्रवेश नहीं किया। राजपुरोहित से जब इसका कारण पूछा गया तो उसने कहा-छह खण्डों पर विजय प्राप्त करने से चहुं ओर आपकी आन फिरी है, किन्तु आपके ६६ भाई आपकी आज्ञा और अधीनता स्वीकार नहीं करते । श्रीभरतेश्वर ने तुरन्त दूत भेज कर अपने भाइयों से कहलायातुम सब सुखपूर्वक राज्य करो, पर मेरी आज्ञा स्वीकार करो। 88 में से १८ भाई बोले- पिताजी हमें राज्य दे गये हैं, अतएव उन्हीं के पास जाकर हम लोग पूछेगे। वे जैसा कहेंगे, वैसा ही हम करेंगे ।' ऐसा कह कर ६८ पुत्र श्रीऋषभदेव भगवान् के पास पहुंचे। उन्होंने भगवान् से निवेदन किया-भरत अपनी विशाल ऋद्धि के गर्व में आकर हम लोगों को सता रहा है। अब हमें क्या करना चाहिए ? भगवान् ऋषभदेव ने कहाराजपुत्रो !
संबुज्झह किं न बुज्झह, संबोही खलु पेच्च, दुल्लहा । समझो, प्रतिबोध प्राप्त करो। समझते क्यों नहीं हो ? ऐसा राज्य तुम्हें अतीतकाल में अनन्त वार प्राप्त हो चुका है। पर बोधिबीज सम्यक्त्व