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समान है । (लोक का आकार विस्तृत रूप से दूसरे प्रकरण में बतलाया जा चुका है ।) शिवराजर्षि ने इस लोकभावना का चिन्तन किया था ।
बनारस नगरी के बाहर बहुत-से तापस थे। उनमें से जबर्दस्त तपस्या करने वाले शिवराज नामक एक तापस को विभंगज्ञान उत्पन्न हुआ । विभंगज्ञान से उसने सात द्वीप और सात समुद्र पर्यन्त पृथ्वी देखी । वह लोगों से कहने लगा- मुझे ब्रह्मज्ञान उत्पन्न हुआ है । ब्रह्मज्ञान के बल से मैं सात द्वीप समुद्रपर्यन्त पृथ्वी देखता हूँ । बस, इतनी ही बड़ी पृथ्वी है । उसके आगे अन्धकार ही अन्धकार है। एक बार वह नगरी में भिक्षा लेने गया। तब नगर के लोगों ने कहा— श्रमण भगवान् महावीर कहते हैं कि असंख्यात द्वीप असंख्यात समुद्र हैं और शिवराज ऋषि सिर्फ सात द्वीप और सात समुद्र ही बतलाते हैं। इन दोनों कथनों की संगति किस प्रकार हो सकती है ? यह बात सुन कर शिवराज ऋषि ने सोचा- मैं श्री महावीर स्वामी के समीप जाकर चर्चा करूँ कि मेरी आँखों देखी (प्रत्यक्ष ) वात मिथ्या कैसे हो सकती है ? मैं जितनी पृथ्वी देखता हूँ, उससे आगे हो तो वे बतलायें ! इस प्रकार विचार कर ऋषि, भगवान् महावीर के पास पहुँचे । श्री महावीर भगवान् के पास पहुँचते ही ऋषि का विभंगज्ञान, ज्ञान के रूप में परिणत हो गया - ऋषि को सम्यक्त्व प्राप्त हो गया । ऋषि सात द्वीप समुद्र से आगे की कुछ पृथ्वी देखने लगे । उत्तरोत्तर ज्ञान की वृद्धि होने पर उन्होंने असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र देखे । तत्काल प्रभु महावीर को नमस्कार करके शिवराज ऋषि भगवान् के शिष्य बन गये । अन्त में कर्म-क्षय करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया । *
(११) बोधिबीज भावना
बोधि अर्थात् सम्यक्त्व के स्वरूप पर, उसके कारणों पर, उसकी महिमा पर और उसके फल पर पुनः पुनः विचार करना बोधिवीज भावना * संभवतः इसी घटना के कारण वैष्णव लोग अब तक भी सात द्वीपमानते हैं ।