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* जैन-तत्व प्रकाश *
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हरिकेशी मुनि विहार करते-करते एक बार बनारस नगरी पहुँचे । वहां नगरी से बाहर यक्ष के मंदिर में ध्यान धारण करके खड़े हो रहे । राजा की पुत्री ने यक्ष के मंदिर में ऐसे कुरूप साधु को देख कर उन पर थूक दिया । थूकते ही राजकुमारी का मुँह टेढ़ा हो गया । जब राजा को इस घटना का पता चला तो ऋषि के शाप से डर कर राजा ने अपनी वह कन्या ध्यानस्थ को अर्पण कर दी। हरिकेशी मुनि ध्यान समाप्त करके राजा से कहने लगे'राजन् ! हम ब्रह्मचारी साधु मन से भी स्त्री की इच्छा नहीं करते ।' यह सुनकर राजा बहुत घबराया । वह सोच-विचार में पड़ गया कि अब इस कन्या का क्या किया जाय ? आखिर राजा ने पुरोहित को बुलाकर उसकी सम्मति माँगी । पुरोहित ने कहा- तुम्हारी कन्या ऋषिपत्ती है, इसलिए किसी ब्राह्मण को दे दो । भोले राजा ने वह कन्या उसी पुरोहित को ब्याह दी। पाणिग्रहण के समय एक यज्ञ का आरंभ किया गया । संयोगवश इसी यज्ञस्थान में हरिकेशी मुनि भिक्षा लेने पधारे। बहुत-से बालक बेडौल आकृति वाले मुनि को देखकर यज्ञस्थान से बाहर निकले और मुनि को लाठियों और पत्थरों से मारने लगे । तब वह राजकुमारी कहने लगी- मूर्ख बालको ! क्या मौत तुम्हारे सिर पर मंडरा रही है ? राजकुमारी ने इतना ही कहा था कि समस्त बालक अचेत होकर जमीन पर गिर पड़े । सब ब्राह्मण घबरा कर दौड़े। उन्होंने बालकों के अपराध के लिए मुनि से क्षमायाचना की । मुनि ने शान्त भाव से कहा - भाइयो ! हम साधुओं पर कितना ही दुःख क्यों ना पड़े, कोई कितना ही क्यों न सतावे, हम मन से भी किसी का बुरा नहीं सोचते । बालकों को अचेत करने का काम तिन्दुक यक्ष ने किया हो तो ज्ञानी जाने । तत्पश्चात् ब्राह्मणों ने पूर्ण सद्भावना के साथ मुनि को पारणा कराया। फिर मुनि ने ब्राह्मणों को उपदेश दिया विप्रो ! यह आत्मा अनादि काल से हिंसामय कृत्यों में लगा है। मगर हिंसामय कृत्यों से आत्मा का निस्तार नहीं हो सकता । आप लोगों ने यह जन्म भी इसी प्रकार गँवा दिया ! अब हिंसा का त्याग करके सच्चे धर्म के मार्ग पर आओ। विवेकशक्ति का सदुपयोग करो । धर्ममय — हिंसामय यज्ञ का त्याग करके सच्चे यज्ञ का स्वरूप समझो । जीव रूप कुंड में, अशुभ कर्म रूपी ईधन को तप
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