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* जैन-तत्त्व प्रकाश
(७) आस्रव भावना
कर्मों के आगमन के कारणों पर और उसके फल पर बार-बार विचार करना आस्रव भावना है। यथा—हे जीव ! तू अनादि काल से संसार में परिभ्रमण कर रहा है। इसका मूल कारण आस्रव ही है। जीव ने पाप का त्याग तो अनन्त वार किया है किन्तु आस्रव के द्वारों को बंद किये बिना धर्म का पूर्ण फल नहीं प्राप्त हो सकता। श्राव के यों तो वीस भेद हैं, परन्तु उनमें अव्रत प्रधान है। उसमें भी उपभोग (जो वस्तु एक ही वार भोगी जाय, जैसे आहार आदि), परिभोग (जो वस्तु वार-बार भोगी जा सके जैसे वस्त्र-आभूषण आदि), धन, भूमि आदि की मर्यादा न करना, आशा-तृष्णा का निरोध न करना, यह आस्रव ही इस भव में महातृष्णा रूप सागर में गोते खिलाता है। इसी के प्रताप से जीव दुर्गति में जाकर अनन्त काल तक विडम्बनाएँ भोगता है । ऐसा जानकर हे जीव ! अब आस्रव का त्याग कर। व्रत-प्रत्याख्यान को ग्रहण कर। जितना भी शक्य हो, आरंभ-परिग्रह का त्याग कर।
__इस प्रकार की प्रास्रव भावना श्रीसमुद्रपाल ने भायी थी। चम्पा नगरी में पालित नामक श्रावक का समुद्रपाल नामक एक पुत्र था। वह एक बार अपनी पत्नी के साथ हवेली के झरोखे में बैठा-बैठा नीचे बाजार की शोभा देख रहा था। उस समय मज़बूती के साथ बांधा हुआ एक चोर वधस्थान की ओर ले जाया जा रहा था। समुद्रपाल की दृष्टि उस पर पड़ी। उसे देखकर समुद्रपाल विचार करने लगा-देखो, अशुभ कर्मों का उदय! यह बेचारा चोर भी मेरे जैसा मनुष्य ही है। किन्तु कर्मों के वश होकर इस समय पराधीन हो गया है । जब किसी समय मेरे अशुभ कर्मों का उदय आएगा तो मुझे कौन छोड़ेगा ? यह कर्मोदय आस्रव पर भी निर्भर है। आस्रव को रोक दिया जाय तो बंध न हो और कर्मबंध न हो तो कर्म का उदय भी न हो ! अतः मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि कर्म का उदय होने से पहले ही मास्रव का क्षय करके सुखी बन जाऊँ। इस प्रकार की विचार-श्रेणी पर