________________
* उपाध्याय
[ २६१.
प्रकट होने पर शरीर के बिगड़ने में जरा भी देर नहीं लगती। विवेकशील पुरुषों को शरीर के भीतरी स्वरूप का विचार करना चाहिए ।
इस अशुचि-भावना का चिन्तन श्रीसनत्कुमार चक्रवर्ती ने किया था । अयोध्यानगरी में अत्यन्त रूपवान् सनत्कुमार नामक चक्रवर्ती थे। एक बार पहले देवलोक के इन्द्र ने उनके रूप की प्रशंसा देवसभा में की । एक देव को प्रशंसा पर विश्वास न आया। देव ने वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण करके परीक्षा करने का विचार किया और वह चक्रवर्ती के पास आया। सनत्कुमार चक्रवर्ती का रूप-सौन्दर्य देख कर उसे बड़ा
आश्चर्य हुआ । उस समय चक्रवर्ती स्नान कर रहे थे। उन्होंने ब्राह्मण से कहा-विप्र ! कहाँ से आरहे हो ? देव ने कहा-बिलकुल बचपन में मैंने आपके रूप की प्रशंसा सुनी थी। उसी समय चलना आरंभ किया। चलते-चलते मैं इतना बूढ़ा हो गया हूँ, तब कहीं आज आपका दर्शन कर सका हूँ। आज मेरा मनोरथ पूरा हुआ है । ब्राह्मण रूपधारी देव का यह उत्तर सुनकर चक्रवर्ती को अभिमान हुआ । मन में अत्यन्त गर्व धारण, करके उसने कहा-'इस समय मेरा रूप क्या देखते हो! सोलहों शृंगार सजकर जब मैं राजसभा में अपने समस्त परिवार के साथ बै तब मेरा रूप देखना । उस समय तुम्हारे आश्चर्य का पार नहीं रहेगा। इस प्रकार की गर्वयुक्त वाणी कहते ही चक्रवर्ती के रूप में विकार उत्पन्न हो गया-रूप बिगड़ गया। उसके शरीर में कीड़े पड़ गये । अपनी सुन्दर शरीर की अचानक यह अवस्था देखकर चक्रवर्ती को उसी समय वैराग्य हो पाया। उन्होंने विचार किया-जिस शरीर को मैं ने अत्युत्तम माल खिलाये, नाना प्रकार के श्रृंगारों से सजाया, अनेक प्रकार के सुख दिये उसी शरीर ने आज धोखा दिया ! जब शरीर की ही यह दशा है तो कुटुम्ब-परिवार एवं नौकरों आदि का तो कहना ही क्या है ! मैं समझता था-मेरा शरीर अन्त तक ऐसा ही. बना रहेगा। धिक्कार ! धिक्कार है इस संसार को ! इस प्रकार विचार, कर समस्त राज्य-ऋद्धि का परित्याग कर चक्रवर्ती सनत्कुमार ने साधुपद ग्रहण किया। साधु बनने के बाद ७०० वर्ष तक वह रोग शरीर में बना रहा। तदनन्तर वे नौरोग हुए और केवलज्ञानी होकर मोक्ष पधारें।