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® जैन-तत्त्व प्रकाश
तत्कालीन आचार्यों ने आगे-पीछे का संबंध जोड़ कर, बीच में जो उन्हें ठीक ऊँचा वह लिख दिया। कितने ही शास्त्रों को शंकराचार्य के अनुयायियों ने नष्ट किया और कितनेक को यवनों ने नष्ट कर दिया । परिणाम यह हुआ कि वर्तमान काल में जैन धर्म का सूत्र-आगम बहुत ही थोड़ा शेष रहा है। प्रत्येक काल में और विशेषतया इस काल में शास्त्रज्ञान के जीर्णोद्धार करने की अत्यन्त आवश्यकता है ।
करणसत्तरी
जिस गाथा में उपाध्यायजी के गुणों का निरूपण किया है. उसमें एक पद है-'करणचरणजुओ।' अर्थात् उपाध्यायजी करण के ७० और चरण के ७० बोलों से युक्त होते हैं। चरण का अर्थ है-चारित्र और करण का अर्थ है जिस अवसर पर जो क्रिया करने योग्य हो उसे करना । एक प्रकार से चरण को नित्यक्रिया और करण को नैमित्तिक क्रिया कहा जा सकता है। करण के ७० बोल इस प्रकार हैं
पिण्डविसोही समिई, भावणा पडिमा इंदियनिग्गहो ।
पडिलेहणं गुत्तीओ, अभिग्गहं चेव करणं तु ॥ अर्थात् -- ४ पिण्डविशुद्धि, ५ समिति, १२ भावना, १२ पडिमा, ५ इन्द्रियनिग्रह, २५ प्रतिलेखना, ३ गुप्ति और ४ अभिग्रह-इस प्रकार करणसत्तरी के ७० बोल हैं । इनमें से १ आहार, २ वस्त्र, ३ पात्र और ४ स्थान निर्दोष ही भोगना चार प्रकार की पिएडविशुद्धि है । इसका कथन एषणासमिति में हो चुका है। साधु की बारह प्रतिमाओं का कथन कायक्लेश तप में किया जा चुका है। इन्द्रियनिग्रह का वर्णन प्रतिसंलीनता तप में आ गया है। प्रतिलेखना का कथन चौथी समिति में हो गया और तीन गुप्तियों का कथन चारित्राचार में आगया है। शेष १२ भावनाओं का और चार अभिग्रहों का स्वरूप यहाँ दिया जाता है।