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* जैन-तत्र प्रकाश
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किस प्रकार टिक सकती है ? आत्मन् ! देख, सोच, विचार कर । अगर तू उन पर-पदार्थों के साथ प्रीति करेगा तो अन्त में अवश्य पछताना पड़ेगा । तेरे देखते-देखते उन पदार्थों का नाश हो जायगा और तू पश्चात्ताप करता रह जायगा कि हाय ! मेरी अमुक अमुक प्यारी वस्तुएँ कहाँ चली गई ? अगर इन पदार्थों के नष्ट होने से पहले तू इन्हें छोड़कर चल दिया तो भी तुझे रोना पड़ेगा । उस स्थिति में तू सोचेगा - अरे रे ! कष्ट से उपार्जन की गई इन सब वस्तुओं को छोड़कर मैं केला जा रहा हूँ।' इस प्रकार यह मामला बड़ा विचित्र है । भलाई इसी में है कि जब तक तेरा विवेक जागृत है और शरीर में शक्ति विद्यमान है तब तक इन सब नश्वर पदार्थों का, जिनका तू अपने को स्वामी समझता है, जिन्हें अपना समझ रहा है, त्याग कर स्वेच्छा से निकल जा और सच्ची निराकुलता की खोज में लग । भरत चक्रवर्ती के हृदय में इस प्रकार की विचार- तरंगें उत्पन्न हुई और वह विचार इतने ऊँचे और इतने गहरे बन गये कि उसी समय उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। उसी समय जैनशासन-रक्षक देवों ने आकर उन्हें साधु का वेष रजोहरण, मुँहपत्ति अर्पित किया। साधु-वेष अंगीकार करके वे सभा में आये और उनका उपदेश सुन कर दस हजार बड़े-बड़े राजा दीक्षा लेने को तैयार हुए | उन सबको दीक्षा प्रदान करके, देश-देश में विहार करके अन्त में समस्त कर्मों का क्षय करके मोक्ष पधारे ।
(२) अशरण भावना
इस प्रकार विचार करना कि - 'हे जीव ! इस संसार में तेरे लिए 1. कोई शरण नहीं है । जितने भी सगे-सम्बन्धी हैं, सब स्वार्थ के साथी हैं । जब उनका स्वार्थ नहीं सधता तो कोई भी सगा नहीं रहता । कर्म का उदय आने पर जब तू दुःख से घिर जायगा तो सहायता करने के लिए कोई भी सम्बन्धी नहीं फटकेगा। कदाचित् कोई सहायता करना चाहेगा तो भी वह उस दुःख में हिस्सा नहीं बँटा सकेगा । तेरी व्याकुलता को, तेरे रोग को,