________________
२५८]
® जैन-तत्त्व प्रकाश,
फिर शरीर में जीभ का मैल, नेत्र का मैल, गले का मैल, कान का मैल
आदि मैल भरे हुए हैं । शरीर में सात प्रकार की चमड़ी होती है (१) भामनी अर्थात् ऊपर की चमड़ी। वह चिकनी होती है और शरीर को शोभित करने वाली है। (२) लाल रंग की चमड़ी, जिसमें तिल आदि उत्पन्न होते हैं । (३) श्वेत अर्थात् सफेद चमड़ी, जिसमें चर्म-दल उत्पन्न होता है । (४) तांबे के रंग जैसी चमड़ी, जिसमें कोढ़ आदि रोग उत्पन्न होते हैं । (५) छेदनी चमड़ी, जिसमें अठारह प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं । (६) रोहिणी नामक चमड़ी, जिसमें फोड़े, गंडमाल आदि रोगों की उत्पत्ति होती है । (७) स्थूलत्वचा-जिसमें विद्रधि रहता है । इनके अतिरिक्त यह शरीर तीन प्रकार के विकारों का घर है । तीन विकार यह हैं-बात, पित्त और कफ । इन तीन को कोई-कोई तीन दोष कहते हैं और कोई तीन मैल भी कहते हैं । इनका विवेचन इस प्रकार है:
___ (१) वायु-शरीर में सब जगह वस्तुओं का विभाग करना वायु का काम है। यह वायु सूक्ष्म, शीतल, हलका और चंचल है। खाई हुई वस्तु को नालियों के द्वारा योग्य स्थान पर पहुँचा देना वायु का ही काम है। इस वायु के पांच स्थान हैं-(१) मल का स्थान (२) कोठा अर्थात् पेट (३) अग्निस्थान (४) हृदय और (५) कंठ । इन पाँच स्थानों में वायु का निवास है। वायु के स्थान-भेद से पाँच भेद हैं:-(१) गुदा (मलद्वार) में रहने वाली वायु अपानवायु कहलाती है । (२) नाभि में रहने वाली वायु समान वायु कहलाती है । (३) हृदय में रहने वाली वायु प्राणवायु कहलाती है । (४) कंठ में रहने वाली वायु उदानवायु कहलाती है । (५) शरीर में सर्वत्र रमी हुई वायु व्यान वायु कहलाती है। . वायुप्रकृति वाले के लक्षण यह हैं:-इसके बाल छोटे होते हैं; रूक्षता के कारण शरीर का दुखना, मन का चंचल रहना और बोलने में वाचाल होना । वायु प्रकृति वाले को आकाश में उड़ने के स्वप्न आते हैं । वायु. प्रकृति वाला रजोगुणी कहलाता है।
(२) पित्तः-गरम, पतला, पीला, कडक, तीखा और दग्ध होने के