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* उपाध्याय
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तेरी विपदा को कोई भी ग्रहण नहीं कर सकेगा। यह अशरण भावना है । इस प्रकार की अशरण भावना का श्रीअनाथी मुनि ने चिन्तन किया था।
एक बार राजगृही नगरी के श्रेणिक राजा वायु-सेवन करने के लिए अपने मंडिकुन नामक उद्यान में गये। उद्यान में एक वृक्ष के नीचे एक मुनि विराजमान थे। अत्यन्त सुन्दर और मनोहर उनका रूप था । वे शांत, दान्त और ध्यानस्थ थे। मुनि का सौम्य और तेजस्वी रूप देखकर श्रेणिक चकित रह गये। मुनिराज के पास जाकर श्रेणिक ने उन्हें सादर वन्दना की और उत्कंठा के साथ प्रश्न किया-महात्मन् ! आप इस भर यौवन में साधु क्यों हुए ? मुनिराज ने उत्तर दिया-'राजन् ! मैं अनाथ हूँ।'
मुनि का उत्तर सुनकर मगधाधिपति श्रेणिक के हृदय में दया उत्पन्न हुई । उसने कहा-आप अनाथ हैं तो मैं आपका नाथ बनूँगा। आप मेरे दरबार में चलिए। मैं अपनी प्यारी कन्या आपको ब्याह दूंगा और राज्य देकर सुखी बना दूंगा।
मुनि ने शांत और गंभीर स्वर में कहा-राजन् ! आप स्वयं अनाथ हैं तो दूसरे के नाथ किस प्रकार बन सकते हैं ?
मुनि का यह उत्तर सुनकर श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने कहा—जिसकी अधीनता में तेतीस हजार हाथी, इतने ही घोड़े और इतने ही रथ हैं, तेतीस करोड़ पैदल सैनिक जिसकी आज्ञा शिरोधार्य करते हैं, जिसकी पाँच सौ रानियाँ हैं, एक करोड़ इकहत्तर लाख ग्रामों पर जिसका शासन चलता है, उस मगध के स्वामी श्रेणिक को आप अनाथ कहते हैं ! क्या इससे आपको मृषावाद का दोष नहीं लगा ?
मुनि ने मधुर ध्वनि में कहा-राजन् ! आप अनाथ और सनाथ का वास्तविक भेद नहीं समझते । सुनो, मैं अपना वृत्तान्त बतलाता हूँ।
मैं कौशाम्बी नगरी के प्रभृतधन नामक सेठ का पुत्र हूँ। एक बार मेरे शरीर में ऐसी घोर वेदना उत्पन्न हुई, मानो. इन्द्र ने वज्र का प्रहार