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* जन-तत्त्व प्रकाश *
किया हो ! अनेक उपाय करने पर भी वह वेदना शान्त नहीं हुई। अपनेअपने शास्त्र में निपुण वैद्य, मंत्र-तंत्रवादी मेरी वेदना मिटाने के लिए आये
और औषध, उपचार, पथ्य तथा यत्न करके हार गये, पर रोग नहीं मिटा । मुझे अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करने वाले सब स्वजन मौजूद थे। वे सब तन, मन और धन से परिश्रम करके थक गये, पर कोई दुःख को मिटा नहीं सका । मेरी इच्छा के अनुसार चलने वाली और सदैव मुझे प्रसन्न रखने वाली मेरी पतिव्रता पत्नी ने मेरी वेदना से दुखी होकर भोजन और स्नान का त्याग कर दिया और दिन-रात चिन्तातुर रहने लगी । वह बहुत चाहती थी कि मैं किसी प्रकार निरोग हो जाऊँ, पर वह भी मेरा दुःख दूर करने में समर्थ न हो सकी । सभी को थका देखकर मैंने मन ही मन विचार किया कि अगर मैं इस वेदना से छुटकारा पा सकूँ और मेरा दुःख दूर हो जाय तो तुरंत ही मैं श्रारंभ-परिग्रह के त्यागी, शान्त, दान्त मुनिपद को स्वीकार कर लूँगा। इस प्रकार का विचार निश्चित करते ही मेरी समस्त वेदना अदृश्य हो गई । तब कुटुम्बी जनों की आज्ञा लेकर मैं ने दीक्षा ग्रहण की
और भ्रमण करता-करता यहाँ आया हूँ। यह वृत्तान्त सुनकर राजा श्रेणिक सनाथ-अनाथ का रहस्य समझ गये।
(३) संसार भावना
संसार के स्वरूप का बार-बार चिन्तन करना संसार-भावना है। यथा-हे जीव ! अनन्त जन्म-मरण करके तू सारे संसार में भटका है । संसार में बाल के अग्र भाग के बराबर भी ऐसी कोई जगह शेष नहीं बची है, जहाँ तू ने अनन्त बार जन्म और मरण न किया हो। आत्मन् ! तू जगत् के समस्त जीवों के साथ सब प्रकार के संबंध कर चुका है । पहले तू जिसकी माता था, मर कर उसकी स्त्री बना फिर स्त्री के रूप से मर कर फिर माता बना । इसी प्रकार एक बार जिसका सिता बना था, दूसरी बार उसका पुत्र बना । पुत्र मर कर पिता हुआ । इस तरह सभी जीवों के साथ सभी प्रकार