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ॐ उपाध्यायॐ
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(३) जीवाभिगम—यह श्री ठाणांगसूत्र का उपांग है, जिसमें अढ़ाई द्वीप, चौवीस दंडक, विजय पोलिया वगैरह का वर्णन है । इसके मूल श्लोक
(४) श्रीपन्नवणा-यह श्री समवायांग सूत्र का उपांग है। इसके छत्तीस पदों में, समस्त लोक के जीव-अजीवमय जो पदार्थ हैं, उनका साधु कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं । इनसे मेरी शंका का समाधान अवश्य होगा।]
राजा-क्या आप जीव और शरीर को अलग-अलग मानते हैं ?
मुनि-हाँ, मृत्यु होने पर शरीर के भीतर रहने वाला जीव अन्यत्र जाकर दूसरे शरीर में प्रवेश करता है और पहले के पुण्य-पाप का फल भोगता है।
राजा-मेरे दादा बहुत पापी थे। आपके कथनानुसार तो वे नरक में गये होंगे और वहाँ बहुत दुःख भोगते होंगे ! अगर वे यहाँ आकर मुझे चेताएँ कि-'बेटा ! पाप न कर, पाप न कर । पाप करेगा तो तुझे भी मेरी ही तरह नरक के दुःख भुगतने पड़ेंगे' तो मैं मायूँ कि जीव और शरीर अलग-अलग हैं।
मुनि-तुम अपनी सर्यकान्ता रानी के साथ किसी पापी मनुष्य को व्यभिचार करते देखो तो उस समय क्या करो?
राजा-उसी समय और उसी जगह उसकी जान ले लू।
मुनि-कदाचित् वह मनुष्य हाथ जोड़ कर प्रार्थना करे कि-'राजन् ! मुझे थोड़ी देर के लिए छट्टी दीजिए। मैं अपने लड़के को उपदेश देकर आता हूँ कि वह व्यभिचार का सेवन न करे और करेगा तो दुखी होगा' इस प्रकार कह कर लौट आऊँगा और सजा भुगत लँगा। तो क्या तुम उस पापी को थोड़ी देर के लिए छोड़ दोगे?
राजा-ऐसा कौन मूर्ख होगा जो अपराधी के कहने का भरोसा कर ले ।
मुनि-जब तुम एक पाप करने वाले को, अपनी ही राज्यसीमा के भीतर, जाकर आने की, थोड़ी-सी देर की भी छट्टी नहीं दे सकते, तो अनेक पाप करने वाले तुम्हारे दादा को इतनी दूर आने की छुट्टी कैसे मिल सकती है ?
राजा-ठीक है, पर मेरी दादी ने बहुत धर्म किया था। उन्हें धर्म का बहुत उत्तम फल मिला है, यह बताने के लिए स्वर्ग छोड़कर क्यों नहीं आती ?
मुनि-अगर कोई भंगी तुम्हें अपनी दुर्गन्धमय गंदी झोपड़ी में बुलाना चाहे तो क्या तुम जाना पसंद करोगे?
राजा-आपका यह प्रश्न बड़ा विचित्र है ! मैं राजा होकर दुर्गध के भंडार रूप अपवित्र झोपड़ी में पैर कैसे दे सकता हूँ?
मुनि-तो तुम्हारी दादी स्वर्ग के अनुपम सुखों में मन हैं । दुर्गध वाले इस मनुष्य