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ॐ जैन-तत्व प्रकाश
तीर्थङ्कर भगवान के समवसरण की रचना, चार गतियों में जाने के कारण, दस हजार वर्ष की आयु से लेकर मुक्ति प्राप्त होने तक की क्रिया, समुद्घात, मोक्ष-सुख श्रादि-आदि वि यों का खूब विस्तार के साथ निरूपण किया या है । इस उपांग के मूल श्लोक ११६७ हैं ।
(२) रायपसेणी-यह सूत्रकृतांगसूत्र का उपांग है। इसमें श्री पार्श्वनाथ भगवान् की परम्परा के साधु श्रीकेशी स्वामी के साथ श्वेतांबिकानगरी के नास्तिक राजा परदेशी ( प्रदेशी) का संवाद* है। इसके मूल श्लोक २०७८ हैं।
® केशी स्वामी और प्रदेशी राजा का संवाद अत्यन्त बोधप्रद और उपयोगी है। अतएव उसका संक्षेप में सार दिया जाता है:
श्वेताबिका नगरी के राजा प्रदेशी के प्रधान का नाम चित्त था। एक वार चित्त प्रधान भेट लेकर श्रावस्ती के राजा जितशत्रु के समीप गया । चित्त ने श्रावस्ती में केशी स्वामी का धर्मोपदेश सुना और उससे प्रभावित होकर श्रावक के व्रत अंगीकार कर लिए । चित्त प्रधान ने केशी स्वामी से श्वेताबिका नगरी में पधारने की प्रार्थना की जिससे वहाँ के नास्तिक राजा प्रदेशी को धर्मबोध प्राप्त हो सके और दया मार्ग का प्रभाव बढ़े। उपकार होने की संभावना देखकर यथासमय केशी स्वामी श्वेताम्बिका नगरी पधारे। चित्त प्रधान को जब यह समाचार मिला तो वह नास्तिक राजा को घोड़ा फिराने के बहाने केशी स्वामी के पास लाया । साधु को देखकर, राजा ने चित्त प्रधान से पूछा-'यह कौन है ?' प्रधान ने उत्तर दिया-'वह जीव और शरीर को अलग-अलग मानने वाले साधु हैं। यह अत्यन्त गूढ़ ज्ञानी हैं और उत्तम उपदेश करते हैं, ऐसा मैंने सुना है।'
। प्रधान का उत्तर सुन कर प्रदेशी राजा को कुतहल हुआ। वह उसी समय केशी स्वामी के पास आया और प्रश्नोत्तर करने लगा । वह प्रश्नोत्तर सार रूप में इस प्रकार हैं:
राजा-क्या श्राप जीव और शरीर को अलग-अलग मानते हैं ? मुनि-राजन् ! तुम मेरे चोर हो । राजा-(चौंक कर) क्या मैं, और चोर हूँ? मैंने तो कभी किसी की चोरी नहीं की है। मुनि-क्या तुम अपने राज्य में चुंगी न चुकाने वाले को चोर नहीं मानते हो ?
[चतुर राजा तत्काल समझ गया कि मैंने मुनि को वंदना नहीं की है। मेरा यह व्यवहार चुंगी न चुकाने के ही समान है, यही मुनिजी का आशय है। यह समझ कर राजा ने मुनि को यथोचित वन्दना की और फिर कहा ]
राजा-महाराज, यहाँ बैठू ? मुनि-यह.पृथ्वी तुम्हारे अधिकार में है ? [ यह विचित्र और प्रभावशाली उत्तर सुनकर राजा को विश्वास हो गया कि यह