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® जैन-तत्व प्रकाश
लक्षण बतलाये हैं। दसवें अध्ययन में साधु का कर्तव्य समझाया है। दशवैकालिक सूत्र के ७०० श्लोक हैं।
(२) उत्तराध्ययनसूत्र-इसके ३६ अध्ययन हैं। पहले अध्ययन में विनीत के लक्षण, विनय की विधि और फल बतलाया है। दूसरे में २२ परीषह सहन करने की विधि उपदेश सहित बतलाई है। तीसरे में मनुष्यत्व, अति. श्रद्धा और संयम में बल-पराक्रम इन चार अंगों की दुर्लभता का प्ररूपण है। चौथे में प्रमाद के परित्याग की प्ररूपणा है। वैराग्य-रस से यह अध्ययन भरपूर है। पाँचवे में सकाम अकाम अरण, छठे में विद्यावान् और अविद्यावान् का लक्षण, सातवें में बकरे का उदाहरण देकर रसलोलुप न बनने का उपदेश है। आठवें अध्ययन में कपिल के आख्यान द्वारा तृष्णा के त्याग का सुन्दर उपदेश है । नौवें में नमि राजर्षि और शक्रेन्द्र का संवाद है। दस में आयु की अस्थिरता का चित्र खींचा गया है। ग्यारहवें में विनीत-अविनीत के लक्षण और बहुश्रुत के लिए १६ उपमाएँ दी गई हैं। बारहवें में चाण्डाल जाति में उत्पन्न हरिकेशी अनगार के तप की महिमा, उनका ब्राह्मणों के साथ संवाद और जाति के बदले गुण-कर्म की महत्ता का प्रतिपादन है। ब्राह्मण संस्कृति और जैन संस्कृति का अन्तर समझने के लिए यह अध्ययन अत्यन्त उपयोगी है। तेरहवें अध्ययन में चित्तमुनि और ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के छह भवों के सम्बन्ध का और चित्तमुनि द्वारा किये हुए उपदेश का वर्णन किया है। चौदहवें में इक्षुकार राजा, कमलावती रानी, भृगु पुरोहित, उसकी पत्नी और दो पुत्र-इन छह जीवों का अधिकार है । पन्द्रह में साधु का कर्तव्य, सोलहवें में ब्रह्मचर्य की नौ वाड़ और दसवें कोट का स्वरूप है । सत्तरहवें में पापश्रमण–कुसाधु के लक्षण हैं। अठारहवें में संयति राजा का वर्णन है। संयति राजा जब शिकार के लिए गया तो गर्धभाली मुनि से उनकी भेंट हुई। मुनि के उपदेश से राजा को बोध की प्राप्ति हुई। वह दीक्षित हुआ। इसमें चक्रवर्ती बलदेव आदि राजाओं का गुण-कथन भी है। उन्नीसवें अध्ययन में मृगापुत्र का माता-पिता के साथ संवाद है। उसमें संयम की दुष्करता और दुर्गति के दुःखों का हृदयद्रावक निरूपण है। बीसवें में अनाथी मुनि और श्रेणिक राजा का संवाद वर्णित