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* जैन-तश्व प्रकाश
अर्थात् बिना मतलब न बोले । भाव-चपल न हो अर्थात् क्षणिक तरंग वाला -- कभी कुछ, कभी कुछ सोचने वाला, न हो । चपलता से रहित अर्थात् स्थिर स्वभाव वाला हो (२) निष्कपट हो । (३) हँसी-मज़ाक आदि कुतूहल से रहित हो, (४) किसी का अपमान और तिरस्कार न करे (५) काल तक क्रोध न रक्खे (६) मित्रों से हिल - मिल कर रहे (७) विशेषज्ञ ( विद्वान् ) होकर भी अभिमान न करे (८) अपने द्वारा किये हुए अपराध को स्वीकार करले और दूसरों पर न डाले (8) स्वधर्मियों पर कुपित न हो (१०) अप्रियकारी अर्थात् अपना बुरा करने वाले के भी गुणानुवाद करे (११) किसी की भी गुप्त बात प्रकट न करे (१२) मिथ्या आडम्बर न करे (१३) तत्र का ज्ञाता हो (१४) जातिमान हो (१५) लज्जावान् हो तथा जितेन्द्रिय हो ।
उपाध्यायजी के २५ गुण
वारसंगविऊ बुद्धा, करण - चरणजुओ । पभावणा जोगनिग्गो, उवज्झायगुणं वन्दे ॥
अर्थात्ः - १२ अंग के पाठक, १३-१४ करणसतरि और चरणसत्तर के गुणों से युक्त, १५ - २२ आठ प्रकार की प्रभावना से जैनधर्म का प्रभाव बढ़ाने वाले, २३-२५ तीनों योगों को वश में करने वाले, इन पच्चीस गुणों के धारक मुनि उपाध्याय कहलाते हैं ।
द्वादशांग सूत्र
जगत् में जीव जैसे शरीर के आधार पर टिका हुआ है, उसी प्रकार विश्व में धर्म ज्ञान के आधार पर रहा हुआ है । और ज्ञान भी निराधार नहीं है । उसके लिए शास्त्रों के श्रालम्बन की आवश्यकता है । साधारणतया केवली • भगवान् की वाणी के अनुकूल जितने भी ग्रन्थ हैं, सभी शास्त्र कहलाते हैं;