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* जैन-तत्त्व प्रकाश *
(१२) बारहवें शतक में शंख और पोखली श्रावक का, जयंतीबाई के प्रश्नोत्तरों का, पुद्गलपरावर्तन का तथा आठ आत्माओं के पारस्परिक सम्बन्ध आदि विषयों का वर्णन है।
(१३) तेरहवें शतक में नारकावास में जीवों की उत्पत्ति, लेश्या के स्थान, देवस्थान, देवता की परिचारणा का अधिकार, चमरचंचा राजधानी का परिचय, उदायी राजा का वर्णन, कर्मप्रकृति का स्वरूप, गगनगामी साधु का कथन और छमस्थ के समुद्घात का वर्णन है ।
(१४) चौदहवें शतक-में साधु का मरण, परभवगति, अनन्तर परम्पर का कथन, पक्ष के उन्माद से मोह के उन्माद की प्रबलता, काल से और इन्द्र द्वारा वर्षा बरसना, नरक में पुद्गल-परिणाम, चरमाचरम का कथन, आहार परिणाम, महावीर प्रभु के प्रति गौतम का अनुराग, अंवड़ संन्यासी के ७०० शिष्यों का प्राचार, देव की हजारों रूप बनाकर हजारों भाषा बोलने की शक्ति आदि विषयों का वर्णन है।
(१५) पन्द्रहवें शतक में गोशाला ने निमित्तज्ञान सीखा, तेजोलेश्या प्राप्त की, जिन कहलाया, भगवान् महावीर से मिला, दो साधुओं को भस्म किया, भगवान् को जलाने का प्रयत्न करने पर आप स्वयं जल मरा, मरते समय सम्यक्त्व प्राप्त किया, रेवती गाथापत्नी द्वारा बनाये हुए कोलापाक का आहार करके भगवान् को साता उपजी, अगले भव में गोशालक का जीव सुमंगल साधु को जलाएगा, गोशालक का जीव अनन्त संसार भ्रमण करके अन्त में मोक्ष पाएगा, आदि विषयों का कथन है ।
(१६) सोलहवें शतक में अग्नि और वायु का संबंध, शक्रन्द्र उघाड़े मुँह बोले तो पाप, शक्रेन्द्र की अपेक्षा ऊपर के देवलोकों के देव कान्तिमान् हैं, तथा स्वम आदि का वर्णन है ।
(१७) सत्तरहवें शतक–में उदायन और भूतानन्द हाथी का, धर्मी-अधर्मी, पंडित-बाल, व्रती-अव्रती, ईशानेन्द्र की सभा तथा भवनवासी देवों का वर्णन है।