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ॐ जैन-तत्व प्रकाश
है। दूसरे उद्देशक में नरक का, लेश्या का संचिट्ठन-काल तथा १४ प्रकार के जीवों के देवलोक में जाने का वर्णन है। तीसरे उद्दशक में कांक्षामोहनीय कर्म, आराधक के लक्षण आदि हैं। चौथे उद्देशक में कर्मप्रकृति, अपक्रमण, पुद्गल, जीव, छमस्थ तथा केवली का वर्णन है । पाँचवें में नरक, भवनपति, पृथ्वी, ज्योतिषी तथा वैमानिक का वर्णन, कषाय के भंग और दंडक बतलाये हैं । छठे में रोह अनगार के प्रश्नोत्तर, लोक की स्थिति तथा आधार तथा जीव पुद्गल का संबंध बतलाया है । सातवें उद्देशक में नारकजीव की उत्पत्ति, विग्रह गति, देव की जुगुप्सा, गर्भोत्पत्ति, सन्तान में आने वाले माता-पिता के अंग और गर्भस्थ जीव के स्वर्ग-नरक में जाने का वर्णन है।
आठवें उद्देशक में एकान्त बाल और पण्डित का आयुष्य, मृगवधक की क्रिया, सवीर्य अवीर्य वगैरह का वर्णन है। नौवें में गुरु-लघु संबंधी प्रश्नोत्तर सुसाधु और आयुबंध का वर्णन है ।
(२) दूसरा शतक:--इसके प्रथम उद्देशक में खंधक संन्यासी, सान्त अनन्त जीव, सिद्ध, बाल-पण्डित मरण, भिक्षु की प्रतिमा तथा गुणरत्नसंवत्सर तप आदि का वर्णन है । दूसरे उद्देशक में समुद्घात का वर्णन है। तीसरे में आठ पृथिवियों का और चौथे में इन्द्रियों का वर्णन है । पाँचवें में गर्भ स्थिति, मनुष्य का बीज, एक जीव पिता और पुत्र, मैथुन में हिंसा, तुंगिया नगरी के श्रावक, द्रह का गरम पानी आदि का वर्णन है । छठे में भाषा का, सातवें में देवों का, आठवें में असुरेन्द्र की सभा का, नौवें में अढ़ाई द्वीपों का और दसवें में उत्थान आदि का वर्णन है।
(३) तीसरा शतक:-प्रथम उद्देशक में इन्द्रों की ऋद्धि का, तिष्यगुप्त अनगार का, गुरुदत्त अनगार का तथा तामली तापस श्रादि का वर्णन है । दूसरे उद्देशक में असुरकुमार, वैमानिक देव की चोरी, असुरकुमार का सौधर्म देवलोक में गमन, पूरण तापस आदि का वर्णन है। तीसरे में मंडिपुत्र गणधर के प्रश्नोत्तर, अंतक्रिया, समुद्र का ज्वार आदि विषयों का निरूपण है । चौथे में साधु तथा देव के ज्ञान के भंग तथा लेश्या आदि का वर्णन है । पाँचवें में साधु की वैक्रिय शक्ति का, छठे में विभंग ज्ञान का,