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# স্বর্ণ
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कर चले जाते हैं । सिर्फ द्रव्य का उपार्जन करते हैं । जो पाप किये हैं उनकी गठरी अपने सिर पर लाद कर नरक-तिर्यश्च आदि अधोगति को प्राप्त होते हैं । लोभ को ऐसा दुष्ट जानकर आचार्य महाराज लोभ का त्याग करके सदैव सन्तोष में मग्न रहते हैं।
उक्त क्रोध आदि कषायों में से प्रत्येक के चार-चार भेद हैं । जैसेअनन्तानुबंधी क्रोध, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, प्रत्याख्यानावरण क्रोध और संज्वलन क्रोध । इसी प्रकार मान, माया और लोभ के भी चार-चार, भेद हैं । इनका स्वरूप इस प्रकार है:
___ जिस कषाय की मौजूदगी में संसार का अन्त नहीं आता-संसारपरीत नहीं होता, उसे अनन्तानुबंधी कषाय कहते हैं। अनन्तानुबंधी का क्रोध पत्थर में पड़ी हुई दरार के समान है। इसके होने पर फटा हुआ कभी नहीं मिलता। अनन्तानुबंधी का मान पत्थर के खंभे के समान है जो कभी नहीं झुकता । माया वांस की जड़ के समान बड़ी गांठ-गठीली होती है । लोभ किरमिची रंग के समान है, जो एक बार चढ़ने पर फिर नहीं छूटता । अनन्तानुबन्धी कषाय की स्थिति यावज्जीवन की है। यह सम्यक्त्व को रोकती है। जब तक अनन्तानुबंधी कषाय रहता है जब तक सम्यक्त्व नहीं होता । इस कषाय में मरने वाला जीव नरकगति पाता है।
(२) जो कषाय लेश मात्र भी प्रत्याख्यान नहीं होने देता उसे अप्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं । इसका क्रोध जमीन में पड़ी हुई दरार के समान होता है जो वर्षा होने पर मिट जाती है। मान काष्ठ के खंभे के समान होता है जो श्रम करने से नम जाता है । माया मेष ( मेढ़े) के सींग के सदृश है, जिसकी वक्रता प्रत्यक्ष दिखाई देती है । लोभ खंजन (औंगन) के समान है, जो कठिनाई से छूटता है । इस कषाय की स्थिति एक वर्ष की है। यह श्रावक के व्रत देशविरति और सकामनिर्जरा नहीं होने देता। इस कषाय में मरने वाला जीव तिर्यश्चगति पाता है ।