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* जैन-तत्त्व प्रकाश
करके सारी रात्रि व्यतीत करे । गाय का दूध दुहते समय जो आसन होता है वह गोदुहासन कहलाता है। पाट-कुर्सी पर बैठ कर पैर जमीन पर लगावे और पीछे से पाट-कुर्सी के हटा लेने पर जो आसन होता है वह वीरासन कहलाता है। सिर नीचे और पैर ऊपर रखना अम्बकुब्जासन कहलाता है।
[११] ग्यारहवीं प्रतिमा-षष्ठभक्त [बेला] करे, दूसरे दिन गाँव के बाहर अहोरात्रि [आठ पहर] कायोत्सर्ग करके खड़ा रहे ।
[१२] बारहवीं प्रतिमा-अष्टमभक्त तेला करे। तीसरे दिन महाकाल [भयंकर] श्मशान में एक वस्तु पर अचल दृष्टि स्थापित करके कायोत्सर्ग करे । देव, दानव या मानव संबंधी उपसर्ग होने पर अगर चलित हो जाता है तो-[१] उन्माद [विकलता] की प्राप्ति होती है, [२] दीर्घ काल तक रहने वाला रोग उत्पन्न हो जाता है और [३] जिनप्रणीत धर्म से [संयम से च्युत हो जाता है। इसके विपरीत यदि निश्चल रहता है तो-[१] अवधिज्ञान, (२) मनःपर्ययज्ञान और (३) केवल ज्ञान में से किसी एक ज्ञान की प्राप्ति होती है।
केशों का लोंच करना, ग्रामानुग्राम विचरना, सर्दी-गर्मी को सहन करना, खुजली आने पर खुजाना नहीं, मैल उतारना नहीं इत्यादि सब कष्ट सहन करना काय-क्लेश तप में ही अन्तर्गत हैं।
(६) प्रतिसंलीनता- कर्म के आस्रव के कारणों का निरोध करना प्रतिसंलीनता तप है । इसके चार भेद हैं- [१] राग और द्वेष को उत्पन्न करने वाले शब्दों के सुनने से कान को रोकना, रूप से आंखों को रोकना, गन्ध से नाक को, रस से जिहवा को और स्पर्श से शरीर को रोकना और कदाचित् इन शब्द आदि विषयों की प्राप्ति हो तो मन में विकार उत्पन्न न होने देना- समवृत्ति रखना इन्द्रियप्रतिसंलीनता तप है। [२] क्षमा से क्रोध का, विनय से मान का, सरलता से माया का और संतोष से लोभ का निग्रह