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१८दा
® जैन-तत्त्व प्रकाश
__ अर्थात्-(१) तीर्थकर भगवान्, केवलज्ञानी महाराज तथा चौदह पूर्व से दस पूर्व तक सूत्र के पाठक मुनिराजों की विद्यमानता में, उनकी
आज्ञा के अनुसार चलना आगम व्यवहार कहलाता है । (२) इनके अभाव में तीर्थंकर प्रणीत गणधररचित आचारांगादि शास्त्र, जिस काल में जितने उपलब्ध हो, उनमें कथित आचार के अनुसार प्रवृत्ति करना सूत्र-व्यवहार है । (३) इनके अभाव में जिस काल में जो आचार्य हों उनकी आज्ञा के अनुसार चलना, अगर वे देशान्तर में हों तो पत्र प्रादि द्वारा जो आज्ञा दें, तदनुसार प्रवृत्ति करना आज्ञा व्यवहार कहलाता है। (४) इसके अभाव में आचार्य श्रादि से अपने गुरु आदि ने जैसी धारणा की हो और परम्परा से जैसी धारणा चली आती हो उसके अनुसार प्रवृत्ति करना धारणा व्यवहार है और (५) इसके अभाव में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में परिवर्तन हुआ देखकर, संहनन आदि की हीनता का विचार करके, चतुर्विध संघ मिलकर जो निरवद्य मर्यादा कायम करे उसके अनुसार चलना जीत व्यवहार कहलाता है।
प्राचार्यजी इन पांचों व्यवहारों के ज्ञाता * होते हैं और इसी तरह प्रवृत्ति कराते हैं। वे निरन्तर ज्ञान में, ध्यान में, तप में, संयम में और सदुपदेश आदि धर्म वृद्धि के प्रत्येक काम में उद्यत रह कर, बल, वीर्य, पुरुषकार,
अन्तराय कर्म का बंध करने वाला इष्ट वस्तु प्राप्त नहीं कर पाता, कदाचित् प्राप्त कर लेता है तो उसका भोग नहीं कर पाता और दुःखी दरिद्री होता है। ऐसा जानकर कर्म बंधन से अपनी आत्मा की रक्षा करना कर्म-व्युत्सगें तप कहलाता है।
* उक्त पाँच प्रकार के व्यवहारानुसार वर्तमान काल के चतुर्विध संघ यदि मातान्तर में विरोधोपस्थित करने वाले विधि विधानादि को तथा धर्माचार में मतभेद जो है उसे प्रवर्तक की इच्छा पर छोड़ दे और परस्पर भिन्नता दर्शक तथा क्लेश उत्पादक जाहिर प्ररूपना करने का जो त्याग देने की प्रवृत्ति करेंगे तो सहज कुसम्प का नाश हो जायगा, सद्गुणों का प्रसार हो जायगा, और बौद्ध धर्म के समान ही यह प्राचीन परमोत्तम परम पवित्र जैन धर्म जगत् व्यापी सर्वमान्य बने इसमें किंचित् भी संशय नहीं है । ऐसा मैं निश्चयात्मक हो कहना हूँ। पंच व्यवहार में जो 'इसके प्रभाव से ऐसा शब्द रक्खा है, वह वस्तु का प्रभाव नहीं समझना, किन्तु क्षेत्र, काल, भाव का प्रभाव समझना चाहिए ! क्योंकि सूत्र तथा प्राचार्यादि तो पंचम भारे के अन्त तक कायम बने रहेंगे।