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® जैन-तत्त्व प्रकाश है
प्रकार ब्रह्मचारी पुरुष का जितना शरीर मल आदि से मलीन हो जाता है, उतना ही शरीर धोकर के साफ कर लेते हैं। उन्हें सारा शरीर धोने की आवश्यकता नहीं रहती।
उक्त नौ वाड़ों में से किसी एक वाड़ को भंग करने वाले ब्रह्मचारी को शंका उत्पन्न हो जाती है। मैं ब्रह्मचर्य का पालन करू या न करू', इस प्रकार का संदेह उसके चित्त में उत्पन्न हो जाता है। उसके हृदय में कांक्षा अर्थात् भोगोपभोग भोगने की इच्छा भी जागृत हो उठती है । यही नहीं, वह विचिकित्सा से भी ग्रस्त हो जाता है । सोचने लगता है कि इतने दिन ब्रह्मचर्य पालने से कुछ ऋद्धि-सिद्धि प्राप्त नहीं हुई तो आगे भी क्या फल होगा ! इन दोषों के फल-स्वरूप वह भेद को भी प्राप्त हो जाता है अर्थात् ब्रह्मचर्य को नष्ट कर डालता है। उसके मन में और तन में उन्माद (मस्ती) उत्पन्न हो जाता है और फिर लम्बे समय तक रहने वाले सुजाक प्रमेह, शूल आदि रोग उसे घेर लेते हैं । इसका अन्तिम फल यह होता है कि ऐसा पुरुष केवली-प्ररूपित धर्म (संयम) से भ्रष्ट होकर अनन्त काल तक संसार भ्रमण करता है।
ऐसा जानकर आचार्य महाराज स्वयं तो नव वाड़ युक्त ब्रह्मचर्य का पालन करते ही हैं, दूसरों से भी इसी प्रकार ब्रह्मचर्य का पालन कराते हैं ।
४ कषायविजय
जिसके परिणाम से संसार की वृद्धि होती है और जो कर्मबंध का प्रधान कारण है, वह आत्मा का विभाव परिणाम 'कषाय' कहलाता है। कषाय आत्मा का सबसे प्रबल वैरी है । जैसे पीतल के पात्र में रक्खा हुआ दूध-दही कसैला और विषाक्त होकर फैंक देने योग्य हो जाता है, इसी प्रकार कषाय रुपी दुर्गुण से आत्मा के संयम आदि गुण नष्ट हो जाते हैं । इसी कारण उसे 'कवाय' कहते हैं। कषाय के चार भेद हैं:-(१). क्रोध (२) मान (३) माया और (४) लोभ । इनका स्वरूप इस प्रकार है: