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ॐ जैन-तत्त्व प्रकाश
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विनय का गुण नष्ट हो जाता है । विनय के बिना ज्ञान नहीं प्राप्त किया जा सकता और ज्ञान के बिना जीव अजीव की पहिचान नहीं होती । जीवजीव की पहचान के विना दया नहीं, दया बिना धर्म नहीं, धर्म विना कर्मों का नाश नहीं और कर्मों के नाश के बिना मुक्ति का अखण्ड सुख नहीं । इस प्रकार अभिमान मोक्षप्राप्ति में बाधा डालने वाला है। बड़े-बड़े ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी और संयमी, मान से प्रेरित होकर पाप को छिपा रखते हैं और इस कारण विराधक (जिनाज्ञा के भंग करने वाले) बन कर अपनी गति बिगाड़ लेते हैं। मान से महा अंधा बना हुआ कुटुम्ब और अपने शरीर को भी तृणवत् तुच्छ गिन कर इन्हें विलम्ब नहीं करता और भयानक दुःखों का पात्र हो जाता है । मानी का स्वभाव सदैव अवगुणग्राही होता है । वह सदैव दूसरों के छिद्र ताकता रहता है । मानी सदैव दुर्ध्यान में लीन रहता है और इसलिए निरन्तर कर्मबंध करता रहता है । जहाँ मान होता है वहाँ क्रोध अवश्य पाया जाता है ।
जीव धन
नष्ट करते
मान की उत्पत्ति आठ प्रकार से होती है । यथा - १ जाति २ - लाभ ३-कुल ४-ऐश्वर्य ५-बल ६-रूप ७- तपः ८ श्रुतिः । (१) मातृपक्ष को जाति कहते हैं । मेरा नाना, मामा ऐसे उत्तम हैं, मेरी माता ऐसी है, वैसी है, इस प्रकार माता के पक्ष का अभिमान करना जातिमद कहलाता है । (२) मेरे दादा पिता आदि ऐसे ऊंचे हैं, मैं ब्राह्मण के कुल में उत्पन्न हुआ हूँ, क्षत्रिय या साहूकार के घराने में जनमा हूँ, इस प्रकार पिता के पक्ष का अभिमान करना कुलमद कहलाता है । (३) मैंने ऐसे-ऐसे पराक्रम के काम किये हैं, किसी की हिम्मत है जो मेरे सामने आवे, इत्यादि रूप से बल का अभिमान करना बलमद कहलाता है । (४) मैं ऐसी कमाई करता हूँ या मुझे गोचरी में उत्तम या इच्छित वस्तु मिलती है, इस तरह लाभ का अभिमान करना लाभमद कहलाता है । (५) मेरे समान सुन्दर सुरूप तेजस्वी कौन है ? इस प्रकार रूप का अभिमान करना रूपमद कहलाता है । (६) मैं कितना बड़ा तपस्वी हूँ, एक दो उपवास कर लेना तो मेरे लिए किसी गिनती में ही नहीं है, इस तरह तपस्या का अभिमान करना तपोमद है । (७) मैं सब शास्त्रों का ज्ञाता हूँ, मैंने पचासों ग्रंथ रच डाले हैं, मेरे सामने कोई वादी नहीं ठहर