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* आचार्य
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[ १६७ स्थावर जीव होते हैं । उन जीवों के शरीर को अपने शरीर से रगड़ने से शरीर शुद्ध नहीं हो सकता। भला विचार तो कीजिए कि इस शरीर की उत्पत्ति शुक्र और शोणित से होती है। हड्डी, मांस, रक्त, चर्बी आदि का थैला है । चमड़ी से ढंका हुआ है । मल-मूत्र आदि अशुचि पदार्थों से भरा हुआ है । इस प्रकार सदैव अपवित्र रहने वाला यह शरीर पानी ढोलने से किस प्रकार पवित्र हो सकता है ? जो लोग पानी से शरीर का पवित्र होना मानते हैं, उनसे यह प्रश्न पूछना चाहिए कि मान लीजिए, एक आदमी ने सौ बार कुल्ला करके अपने मुख को पवित्र कर लिया। उसके बाद उसने कुल्ला का पानी आपके ऊपर थूक दिया। तो आप घृणा करेंगे या नहीं ? अगर आप करते हैं तो आपको मानना पड़ेगा कि सौ बार कुल्ला करने पर भी उस आदमी का मुख शुद्ध पवित्र ही रहा था । पवित्र हो गया होता तो आपको घृणा क्यों होती ? इस व्यावहारिक उदाहरण से ही सिद्ध हो जाता है कि पानी से शरीर की शुद्धि नहीं होती । काशीखण्डपुराण में कहा है
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मृदो भारसहस्रेण, जलकुम्भशतेन च । न शुद्धयति दुराचारी, स्नानं तीर्थशतैरपि ॥
अर्थात् — कोई दुराचारी हजारों भार ( परिमाण - विशेष) मिट्टी, शरीर कोमल-मल कर लगावे और सैंकड़ों घड़े पानी से प्रचालन करे तो भी शुद्ध नहीं हो सकता है ।
फिर भी यदि स्नान से शुद्धि मानते हो तो जाति भेद को क्यों पकड़ रक्खा है ? फिर तो भंगी, भील, चमार आदि भी स्नान करके ब्राह्मण क्यों न बन जाएं ? मगर स्नान करने मात्र से नीच जाति वाला उच्च नहीं बन सकता । इन सब बातों से निश्चित समझिए कि सिर्फ स्नान ही शुद्धि का कारण नहीं है। स्नान करने से शरीर पर लगा हुआ मैल ही साफ हो सकता है, अन्तःकरण को पवित्र बनाने वाला स्नान नहीं, सदाचार ही है । अतएव सुज्ञ पुरुषो ! 'शील - स्नानं सदा शुचिः' बिना पानी से स्नान किये ही ब्रह्मचारी पुरुष शील रूप स्नान से सदैव पवित्र हैं । जैसे मकान में कोई बच्चा मलत्याग कर देता है तो उतनी ही जगह साफ की जाती है, उसी