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* जैन-तत्त्व प्रकाश *
होते हैं । इसके विपरीत जो घाणेन्द्रिय को वश में करते हैं, वे नाक की नीरोगता को प्राप्त करते हैं और सुरभिगंध के भोगी होते हैं। तत्पश्चात् उन भोगों का त्याग करके मुक्ति प्राप्त करते हैं ।
[४] रसेन्द्रिय को रसना इन्द्रिय भी कहते हैं। इसका विषय अर्थात् रस पाँच प्रकार का है:-[१] कड [२] मिष्ट [३] तीखा [४] खारा [५] कसैला। इन पाँच रसों वाले सचित्त, अचिच और मिश्र-तीनों प्रकार के पदार्थ होते हैं । अतः ५४३=१५ भेद हुए। यह पन्द्रह शुभ भी होते हैं और अशुभ भी होते हैं। इस प्रकार १५४२=३० भेद हुए । इन्हें राग और द्वेष से गुणित करने पर रसेन्द्रिय के ६० विकार होते हैं।
__रसना-इन्द्रिय में आसक्त होकर मछली अकालमृत्यु को प्राप्त होती है, तो मनुष्य की क्या गति होगी ? ऐसा समझ कर राग-द्वेष उत्पन्न करने वाले रसों के प्रास्वादन से बचना चाहिए । कदाचित् ऐसे रस भोगने पड़े तो उनमें राग-द्वेष नहीं करना चाहिए, समभाव से आस्वादन करना चाहिए । विवेकशील पुरुष को समझना चाहिए कि रस-जन्य सुख क्षणिक होता है। कहावत प्रसिद्ध है—'उतरा घाटी हुआ माटी ।' परन्तु उसके निमित्त से जो कर्मबंध होता है, उसका फल दीर्घ काल तक भुगतना पड़ता है। जीव को गूगा और कुबड़ा होना पड़ता है और अनेक रोगों से पीड़ित होकर तड़फना पड़ता है । रसों में गृद्धि रखने वाले रसनाहीन एकेन्द्रिय जीवों की योनि में उत्पन्न होते हैं । इसके विपरीत रसना को वश में करने वाला सुस्पष्ट मधुरभाषी, मुख की नीरोगता वाला, इच्छानुसार रसोपभोग की वस्तुएँ प्राप्त करने वाला होता है । किन्तु रसों में आसक्ति न रखता हुआ क्रमशः सिद्धि प्राप्त करता है। लोक में कहावत है-'एक धापी तो चार भूखी और एक भूखी तो चार धापी।' इसका अर्थ यही है कि यदि एक रसनेन्द्रिय तृप्त (धापी हुई) होगी तो सुनने को कान, देखने को आँख, सुगंध सूघने को नाक और स्पर्शसुख भोगने के लिए शरीर-यह चारों इन्द्रियाँ तृषातुर [भूखी] रहेगी । और यदि रसना भूखी रही तो पूर्वोक्त चारों इन्द्रियाँ अपने विषय भोगने के लिए आतुर भूखी न होंगी । क्योंकि जब पेट खाली होता