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* आचार्य *
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[२] चक्षुरिन्द्रियः – जिसके द्वारा रूप (वर्ण) देखा जाता है उसे चक्षुरिन्द्रिय अथवा श्रख कहते हैं। आँख के विषय अर्थात् वर्ण पाँच प्रकार के हैं – (१) कृष्ण वर्ण (२) हरित वर्ण (३) रक्त वर्ण (४) पीत वर्ण और (५) श्वेत वर्ण । पाँचों वर्ण वाली कोई वस्तु सजीव होती है, कोई अजीव (चित्त) होती है और कोई मिश्र होती है । अतः आँख के विषय ५X३ = १५ हुए। यह वर्ण कभी शुभ और कभी अशुभ होते हैं, इस लिए १५x२=३० भेद होते हैं । इन तीनों भेदों को राग और द्वेष से गुणित करने पर ३०x२= ६० विकार चचुरिन्द्रिय के हो जाते हैं ।
चक्षु इन्द्रिय के विषय में आसक्त होकर पतंग दीपक पर गिर कर मर जाता है । तो मनुष्य का क्या हाल होगा ? ऐसा समझ कर राग-द्वेष उत्पन्न करने वाले रूप का अवलोकन करना नहीं और कदाचित् दृष्टिगोचर हो जाएँ तो उन पर राग-द्वेष न होने देना चाहिए । चक्षुरिन्द्रिय द्वारा कर्मबंध करने वाले जीव भविष्य में अन्धे होते हैं अथवा चाहीन तइन्द्रिय जीवों की योनि में उत्पन्न होते हैं । इससे विपरीत जो चतु-इन्द्रिय को वश में रखकर कर्म नहीं बाँधते हैं, वे दिव्य नीरोग नेत्र प्राप्त करते हैं; अच्छे रूप को अवलोकन करने वाले होते हैं और फिर इन्द्रियनिग्रह करके क्रमशः मुक्तिलाभ करते हैं ।
[३] प्राणेन्द्रियः - जिसके द्वारा गंध का ग्रहण किया जाता है, उसे घ्राणेन्द्रिय कहते हैं । घ्राणेन्द्रिय का विषय अर्थात् गंध दो प्रकार की है[१] सुरभिगंध और [२] दुरभिगंध । इन दोनों के सचित्त, अचित्त और मिश्र भेद से छह भेद हैं और छह को राग-द्वेष से गुणित करने पर घ्राणेन्द्रिय के १२ विकार होते हैं ।
घ्राणेन्द्रिय के विषय में आसक्त होकर अमर फूल में फंस कर मृत्यु को प्राप्त होता है, तो मनुष्य का क्या हाल होगा ? इस प्रकार विचार कर रागद्वेष उत्पन्न करने वाले गंध को सूँघने से बचना चाहिए । कदाचित् श्रनायास गंध आ जाय तो उसमें राग या द्वेष नहीं करना चाहिए । जो घ्राणेन्द्रिय के द्वारा कर्मबंध करते हैं उन्हें भविष्य में घ्राण के अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं, वे नकटे होते हैं अथवा नासिकाहीन द्वीन्द्रिय जीवों की योनि में उत्पन्न