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28 जैन-तत्त्व प्रकाश ®
पाँच इन्द्रियनिग्रह
(१) श्रोत्रेन्द्रियः-जिसके द्वारा शब्द सुना जाता है उसे श्रोत्रेन्द्रिय कहते हैं। श्रोत्रेन्द्रिय का विषय अर्थात् शब्द तीन प्रकार का है-(१) जीवशब्द (२) अजीव शब्द और (३) मिश्र शब्द । मनुष्य, पक्षी आदि जीवों के शब्द को जीव शब्द कहते हैं । दीवाल आदि के गिरने से जो शब्द होता है वह अजीव शब्द कहलाता है। तथा वाद्य बजाने वाले जीव का और वाद्य का--दोनों का मिला हुआ शब्द मिश्र शब्द कहलाता है।
श्रोत्रेन्द्रिय के १२ विकार हैं। यथा-पुण्यात्मा प्राणी बोलता है तो अच्छा लगता है और पापात्मा बोलता है तो बुरा लगता है। यह जीवशब्द के दो प्रकार हैं। चांदी-सोने के पड़ने का शब्द अच्छा लगता है और भीत पड़ने का शब्द बुरा लगता है। यह अजीवशब्द के दो प्रकार हैं। उत्सव का बाजा अच्छा लगता है और मृत्यु पर बजने वाला बाजा खराब लगता है। यह मिश्र शब्द के दो प्रकार हैं। इस प्रकार उक्त तीनों शब्दों को शुभ और अशुभ के भेद से दुगुने करने पर छह भेद होते हैं। यह छह प्रकार के शब्द कभी खराब भी अच्छे लगते हैं, जैसे सुसराल में गालियाँ । और कभी अच्छे भी खराब लगते हैं, जैसे लग्नोत्सव के अवसर पर 'राम नाम सत्य है' कहना। इस प्रकार उक्त छह भेदों को राग और द्वेष से गुणा करने पर श्रोत्रेन्द्रिय के १२ विकार होते हैं। __श्रोत्रेन्द्रिय के विषय की आसक्ति के कारण मृग अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है और सर्प को बन्धन में फंसना पड़ता है। तो फिर मनुष्यों की क्या दुर्गति न होगी ? ऐखा जान कर राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। जो श्रोत्रेन्द्रिय के द्वारा कर्मबंध करता है वह भविष्य में बहरा और कान के अनेक रोगों वाला होता है अथवा श्रोत्रेन्द्रिय से हीन चौइन्द्रिय होता है। इसके विपरीत जो श्रोत्रेन्द्रिय को अपने काबू में रखता है, वह कान की नीरोगता को प्राप्त होकर अच्छे शब्द सुनने वाला होता है। फिर वह श्रोत्रेन्द्रिय को जीत कर क्रम से मोक्ष प्राप्त करता है।