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________________ * आचार्य * [ १६१ [२] चक्षुरिन्द्रियः – जिसके द्वारा रूप (वर्ण) देखा जाता है उसे चक्षुरिन्द्रिय अथवा श्रख कहते हैं। आँख के विषय अर्थात् वर्ण पाँच प्रकार के हैं – (१) कृष्ण वर्ण (२) हरित वर्ण (३) रक्त वर्ण (४) पीत वर्ण और (५) श्वेत वर्ण । पाँचों वर्ण वाली कोई वस्तु सजीव होती है, कोई अजीव (चित्त) होती है और कोई मिश्र होती है । अतः आँख के विषय ५X३ = १५ हुए। यह वर्ण कभी शुभ और कभी अशुभ होते हैं, इस लिए १५x२=३० भेद होते हैं । इन तीनों भेदों को राग और द्वेष से गुणित करने पर ३०x२= ६० विकार चचुरिन्द्रिय के हो जाते हैं । चक्षु इन्द्रिय के विषय में आसक्त होकर पतंग दीपक पर गिर कर मर जाता है । तो मनुष्य का क्या हाल होगा ? ऐसा समझ कर राग-द्वेष उत्पन्न करने वाले रूप का अवलोकन करना नहीं और कदाचित् दृष्टिगोचर हो जाएँ तो उन पर राग-द्वेष न होने देना चाहिए । चक्षुरिन्द्रिय द्वारा कर्मबंध करने वाले जीव भविष्य में अन्धे होते हैं अथवा चाहीन तइन्द्रिय जीवों की योनि में उत्पन्न होते हैं । इससे विपरीत जो चतु-इन्द्रिय को वश में रखकर कर्म नहीं बाँधते हैं, वे दिव्य नीरोग नेत्र प्राप्त करते हैं; अच्छे रूप को अवलोकन करने वाले होते हैं और फिर इन्द्रियनिग्रह करके क्रमशः मुक्तिलाभ करते हैं । [३] प्राणेन्द्रियः - जिसके द्वारा गंध का ग्रहण किया जाता है, उसे घ्राणेन्द्रिय कहते हैं । घ्राणेन्द्रिय का विषय अर्थात् गंध दो प्रकार की है[१] सुरभिगंध और [२] दुरभिगंध । इन दोनों के सचित्त, अचित्त और मिश्र भेद से छह भेद हैं और छह को राग-द्वेष से गुणित करने पर घ्राणेन्द्रिय के १२ विकार होते हैं । घ्राणेन्द्रिय के विषय में आसक्त होकर अमर फूल में फंस कर मृत्यु को प्राप्त होता है, तो मनुष्य का क्या हाल होगा ? इस प्रकार विचार कर रागद्वेष उत्पन्न करने वाले गंध को सूँघने से बचना चाहिए । कदाचित् श्रनायास गंध आ जाय तो उसमें राग या द्वेष नहीं करना चाहिए । जो घ्राणेन्द्रिय के द्वारा कर्मबंध करते हैं उन्हें भविष्य में घ्राण के अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं, वे नकटे होते हैं अथवा नासिकाहीन द्वीन्द्रिय जीवों की योनि में उत्पन्न
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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