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* आचार्य
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(५) वीर्याचार
श्री भगवतीसूत्र में तथा व्यवहारसूत्र में पांच प्रकार के व्यवहार कहें हैं। यथा-पंचविहववहारे पएणते, तंजहा—आगमे, सुए, प्राणा, धारणा, जीए। कन्द-मूल आदि अभक्ष्य खाना, रौद्र ध्यान करना, कृष्ण श्रादि तीन अशुभ लेश्याओं के परिणाम में मृत्यु होना।
(६) नाम कर्म के कारण-जैनधर्म में तल्लीन होना, दयावान् और दानशील होना और मुक्ति का अभिलाषी होना, इन तीन कारणों से शुभ नाम कर्म बंधता है। मिथ्या उपदेश देना, कुमार्ग को ग्रहण करना, स्वयं दान न देना एवं दूसरे को भी दान न देने देना, कठोर असत्य वचन बोलना, महा श्रारंभ करना, पर निन्दा करना, सब जीवों का द्रोह करना और मत्सरता युक्त परिणाम रखना, इन आठ कारणों से अशुभ नाम कर्म का बंध होता है।
तीर्थङ्कर नाम कम के बंध के कारण, तीर्थदर नाम कर्म निम्न लिखित सोलह कारणों से बंधता है-निर्मल सम्यक्त्व पालना, विनयवान् होना, शीलादिवत निर्मल पाल ना, ज्ञान में बार-बार उपयोग लगाना, वैराग्य में वृद्धि करना, यथाशक्ति दान देना, निर्मल तप करना, साधु आदि चारों तीर्थों को समाधि उपजाने के लिए वैयावृत्य करना, अरिहन्त की भक्ति करना, प्राचार्य की भक्ति करना, बहुश्रुत की भक्ति करना, शास्त्र की भक्ति करना, प्रातःकाल और संध्याकाल प्रतिक्रमण करना, अखण्ड क्षमाभाव रखना, जैन धर्म की प्रभावना करना, स्वधर्मियों के प्रति वत्सल-भाव रखना, इन सोलह कारणों से तीर्थङ्कर नाम कर्म का बंध होता है।
(७) गोत्र कर्म के कारण-तीव्र क्रोध आदि कषाय करना, दूसरों के गुणों को छिपाना, निन्दा करना, चुगली करना, भूठी साक्षी देना, जीव हिंसा श्रादि पापारंभ करना, इन पाँच कारणों से नीच गोत्र का बध होता है और इनसे विपरीत पाँच कारणों से उच्च गोत्र का बंध होता है।
(८) अंतराय कर्म के १८ कारण- दया-करुणा से रहित होना, दीन जीवों को अन्तराय लगाना, असमर्थ पर कोप करना, गुरु को वंदना करने का निषेध करना, जिन धमे की उत्थापना करना, सिद्धान्त के अर्थ की उत्थापना करना, जैन धर्म को धारण करने से रोकना, ज्ञानीजनों-गुणीजनों की निन्दा-श्रासातना करना, सूत्रार्थ को पढने वालों को बाधा पहुँचाना, स्वयं दान न देते हुए दूसों को देने से रोकना, धर्म कार्य में विघ्न करना, धर्म कथा की हंसी करना, विपरीत उपदेश देना, असत्य बोलना, अदत्त लेना, दान लाभ भोग उपभोग में अन्तराय डालना, गुली के गुण छिपाना, अन्य के दोष प्रकट करना ।