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* जैन-तत्त्व प्रकाश *
धनुष और ओसबिन्दु मनोहर दिखाई देते हैं किन्तु क्षण भर में विनष्ट हो जाते हैं । इसी प्रकार जगत् में स्त्री और पुरुष का जोड़ा, वस्त्राभूषण का चमत्कार, संपत्ति का संयोग देखते-देखते क्षण भर में नष्ट हो जाता है । इनमें आसक्ति का त्याग करने वाला ही सुख-शान्ति प्राप्त करता है । ऐसा विचार करना 'विपरिणामानुप्रेक्षा' है ।
यह शुक्लध्यान के १६ प्रकार हुए। इस प्रकार चारों ध्यानों के ++१६+१६४८ प्रकार पूर्ण हुए। इनमें से आर्तध्यान और रौद्रध्यान के १६ भेद हेय हैं (त्यागने योग्य हैं) और धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान के ३२ भेद उपादेय (ग्रहण करने योग्य) हैं। यह तप ध्यानतप का वर्णन हुआ।
(१२) व्युत्सर्ग-छोड़ने योग्य वस्तु को छोड़ना व्युत्सर्गतप कहलाता है । इसके दो भेद हैं-(१) द्रव्यव्युत्सर्ग और [२] भावव्युत्सर्ग। द्रव्यव्युत्सर्ग चार प्रकार का है--[१] शरीर संबंधी ममता का त्याग करके शरीर की विभूषा (संस्कार-सजावट) और संभाल न करना शरीरव्युत्सर्गतप है। [२] १ ज्ञानवन्त, २ क्षमावन्त, ३ जितेन्द्रिय, ३ अवसर का ज्ञाता, ५ धीर ६ वीर, ७ दृढ़ शरीर वाला, ८ शुद्ध श्रद्धावान्, इन पाठ गुणों का धारक मुनि, गुरु की अनुमति प्राप्त करके, विशिष्ट आत्मसाधना के लिए गच्छ का त्याग करके एकलविहारी होता है, वह गणव्युत्सर्गतप कहलाता है । [३] वस्त्र
और पात्र का त्याग करना उपधिव्युत्सर्ग तप कहलाता है । [४] नवकारसी पोरसी आदि तप करना तथा खाने-पाने के द्रव्यों का परिमाण करना भक्तपान व्युत्सर्गतप है।
भावव्युत्सर्गतप के तीन भेद हैं-(१) क्रोध आदि चारों कषायों को न्यून करना कषाय व्युत्सर्ग तप है। (२) चारगति रूप संसार के कारणों का त्याग करना संसारव्युत्सर्गतप है । चारों गतियों के कारण इस प्रकार है:
(क) नरकगति के कारण--(१) महारंभ-अर्थात् निरन्तर षट्काय के जीयों के वध की भावना और कार्य करना । (२) महापरिग्रह अर्थात् महा