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* जैन-तत्त्व प्रकाश *
राप्त हो और शाश्वत एवं सम्पूर्ण सुख को प्राप्त कर सके। इस प्रकार वेचार करना संसारानुप्रेक्षा है।
इस प्रकार धर्मध्यान के ४४४=१६ भेद हुए । चौथे शुक्लध्यान के भी चार पाये हैं:- (१) पृथकत्ववितर्क सवीचार (२) एकत्ववितर्क-अवीचार (३) सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाती और (४) समुच्छिन्नक्रियाऽतिपाती ।
अनन्तद्रव्यात्मक लोक में से किसी एक द्रव्य का अवलम्बन करके उसके उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप अलग-अलग पर्यायों को, अर्थ से शब्द में :
और शब्द से अर्थ में जाकर चिन्तन करना पृथक्त्ववितर्कसवीचार ध्यान है । (२) एक द्रव्य के एक पर्याय को अवलम्बन करके, अभेदभाव से, किसी एक पदार्थ अथवा पर्याय का स्थिरचित्त होकर चिन्तन करना एकत्ववितर्क-अवीचार ध्यान है । पृथकत्ववितर्क और एकत्ववितर्क-दोनों ध्यान में पूर्व-: " गत श्रुत के अनुसार चिन्तन किया जाता है। किन्तु पृथक्त्ववितर्क मैं अर्थ, '. शब्द और योग का संक्रमण (पलटा) होता रहता है, जब कि एकत्ववितका में यह संक्रमण नहीं होता । जैसे वायुरहित गृह में स्थित दीपक की लौ स्थिर होती है उसी प्रकार इस ध्यान में चित्त एकदम स्थिर, विक्षेप से रहित हो जाता है। (३) एक समय मात्र ठहरने चाली, अत्यन्त सूक्ष्म क्रिया जिनके रह जाती है ऐसे तेरहवें गुणस्थान में स्थित केवली भगवान् का " ध्यान सूक्ष्मक्रियाऽनिवृत्ति नामक शुक्ल ध्यान कहलाता है। (४) क्रिया " मात्र का पूर्ण रूप से क्षय हो जाने पर, पर्वत के समान स्थिर योगावस्था को प्राप्त हुए, चौदहवें गुणस्थानवी पाँच लघु अक्षर (अ, इ, उ, ऋ, ल). उच्चारण करने में जितना काल लगता है उतने काल में मोक्ष प्राप्त कर लेने वाले प्रयोग केवली भगवान् का ध्यान समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्ति नामक . चौथा शुक्लध्यान कहलाता है। अन्त के दोनों ध्यान केवली भगवान् में ही पाये जाते हैं।
शुक्ल-ध्यानी के चार लक्षण हैं-(१) जैसे धातु में मिली हुई मिट्टी यंत्र श्रादि के प्रयोग से अलंग की जा सकती है और अलग हो जाने पर धान्अपने मूल स्वरूप में आ जाती है, उसी प्रकार शुक्लध्यानीमज्ञानादिई