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® जैन-तत्त्व प्रकाश,
लुब्ध होता है वह रोगी होता है। अतएव लोलुपता का त्याग करना चाहिए। इस तप के चौदह प्रकार हैं:--(१) दूध, दही, घी, तेल और मिठाईइन पाँचों विगय को त्यागना 'निश्विगए तप' कहलाता है । (२) धार से विगय न लेना और ऊपर से विगय न लेना 'पणीयरसपरिचाए' (प्रणीतरसपरित्याग) कहलाता है । (३) ओसमण में के दाने खाना 'आयमसित्थभोए' है । (४) रस और मसाले से रहित भोजन करना 'अरसाहार' है। (५) पुराना धान पका (सीमा) हुआ लेना 'विरस-आहार' है । (६) मटर, चना या उड़द आदि के बाकले (घूघरी) लेना 'अंत-आहार' कहलाता है। (७) ठंडावासीआहार लेना 'पंत (प्रान्त) आहार' कहलाता है। (८) रूक्ष (रूखा)आहार लेना 'लुक्ख' आहार कहलाता है । (8) जली हुई खुरचन आदि लेना 'तुच्छ' आहार है । (१०) अरस (११) विरस (१२) अन्त (१३) प्रान्त एवं (१४) रुक्ष आहार लेना। इस प्रकार रूखा-सूखा आदि आहार लेकर संयम का निवाह करना रसपरित्याग नामक बाह्य तप है।
(५) कायक्लेश-स्वेच्छापूर्वक, धर्म की आराधना के लिए काया को कष्ट देना कायक्लेशतप कहलाता है । इस तप के अनेक प्रकार हैं:-कायोत्सर्ग करके खड़ा रहना सो 'ठाणाठितिय' है। कायोत्सर्ग किये बिना खड़ा रहना 'ठाणाइय' तप है । दोनों घुटनों के बीच में सिर झुकाकर कायोत्सर्ग करना 'उक्कडासणिए' तप है । साधु की वारह पडिमाओं को धारण करना 'पडिमाठाइए' तप है । साधु की बारह पडिमाएँ इस प्रकार हैं:
(१) पहली प्रतिमा में एक महीने तक दात+ (दत्ति) आहार की और दात पानी की लेना।
(३) दूसरी प्रतिमा में दो महिने तक दो दात आहार की और दो दात पानी की लेना।
+ आहार लेते समय, एक बार में जितना आहार पात्र में गिरे वह श्राहार की एक दात या दत्ति कहलाती है। पानी की धारा जब तक खंडित न हो तब तक पानी एक दात गिनी जाती है । इसी प्रकार भागे समझना चाहिए।