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जैन-तत्व प्रकाश
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योग से निरोध करना सामायिक चारित्र है । (२) प्रथम और अन्तिम तीर्थ - ङ्कर के तीर्थवर्ती साधु को जघन्य ७ वें दिन, मध्यम ४ महीनों में और उत्कृष्ट ४ मास में महात्रतारोपण करना तथा विशेष दोष लगाने वाले को पुनः महाव्रतारोपण करना छेदोपस्थापना चारित्र कहलाता है । (३) नौ वर्ष की उम्र वाले नौ पुरुष दीक्षा लें। वे नौ पूर्व पूर्ण और दसवें पूर्व की आचार वस्तु का अध्ययन करें । वीस वर्ष की दीक्षा हो चुकने के पश्चात् तीर्थङ्कर से या पहले के परिहारविशुद्धि चारित्र वाले से परिहारविशुद्धि चारित्र को ग्रहण करें। उष्णकाल में १-२-३ उपवास और शीतकाल में २-३-४ उपवास तथा वर्षाकाल में ३-४ - ५ उपवास, इस प्रकार चार पुरुष तपस्या करें, चार उनकी सेवा-भक्ति करें और एवं व्याख्यान सुनावें । इस तरह छह महीना पूर्ण होने के अनन्तर तपस्या करने वाले सेवा-भक्ति करें, सेवाभक्ति करने वाले तपस्या करें और एक व्याख्यान दे । फिर छह महीना पूरे होने के बाद एक व्याख्यान वांचने वाला मुनि तप करे और आठों उसकी सेवाभक्ति करें । इस प्रकार अठारह महीनों में इस चारित्र का पालन किया जाता है । यह परिहारविशुद्धि चारित्र कहलाता है । (४) सूक्ष्म अर्थात् किंचित् और सम्पराय अर्थात् कषायः तात्पर्य यह है कि दसवें गुणस्थानवर्त्ती जीव को सिर्फ संज्वलन कषाय का यत्किंचित लोभ ही शेष रहने पर जो चारित्र होता है वह सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र कहलाता है । (५) मूलगुणों (महात्रतों) में और उत्तरगुणों में (समिति गुप्ति आदि में) तनिक भी दोष न लगाते हुए वीतराग के कथनानुसार, वीतरागभाव से जिस चारित्र का पालन किया जाता है, वह यथाख्यातचारित्र कहलाता है । इस चारित्र वाले को अन्तर्मुहूर्त में ही केवलज्ञान की प्राप्ति होती है ।
प्रशस्त (अशुभ), कर्कश, कठोर, छेदक, भेदक, परितापकारी विचार मन में न करते हुए प्रशस्त, कोमल, दयायुक्त, वैराग्यमय विचार करना मनविनय कहलाता 1
कर्कश, कठोर, छेदक, भेदक, परितापकारी और अप्रशस्त वचनों का उच्चारण न करते हुए प्रशस्त वचनों का उच्चारण करना वचनविनय कहलाता है ।'