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* प्राचार्य
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(१) अमुक अरिहन्त का नाम लेने से दुःख होता है, धन, स्त्री या पुत्र का वियोग होता है अथवा शत्रु का नाश होता है, इत्यादि शब्द कहना अरिहंत श्रासातना है । (२) जैनधर्म में स्नान तिलक आदि कुछ भी अवलम्बन नहीं है, इस कारण जैनधर्म अच्छा नहीं है, ऐसे शब्द कहना अरिहन्तप्रणीत धर्म की आसातना है। (३) पंचाचार के पालक और दीक्षा-शिक्षा के दाता आचार्यजी वय या बुद्धि में कम हों तो उनका यथोचित विनय न करना प्राचार्य की प्रासातना है। (४) द्वादश अंग आदि शास्त्रों के पाठी अनेक मतमतान्तरों के मर्मज्ञ, शुद्ध संयम से सम्पन्न उपाध्यायजी का अवर्णवाद बोलना और सत्कार-सन्मान न करना उपाध्यायजी की आसातना है । (५) साठ वर्ष की उम्र वाले वयःस्थविर, वीस वर्ष की दीक्षा वाले दीक्षास्थविर और स्थानांग-समवायांग सूत्र अर्थ के ज्ञाता सूत्र-स्थविर इन तीन प्रकार के स्थविरों में से किसी की आसातना करना स्थविरासातना है । (६) एक गुरु के अनेक शिष्य परस्पर एक दूसरे की जो आसातना करें वह कुल-आसातना । (७) सम्प्रदाय के साधु परस्पर एक दूसरे की आसातना करें सो गण-आसातना। (८) साधु, साची, श्रावक और श्राविकारूप संघ की आसातना करना संघ की आसातना है । (8) शास्त्रोक्त शुद्ध क्रिया पालने वाले की प्रासातना करना सो क्रियावंत की प्रासातना (१०) एक मण्डल में बैठकर आहार करने वाले साधु की आसातना करना संभोगी-आसातना । (११-१५) मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनः-पर्थयज्ञानी, तथा केवलज्ञानी इन पांचों ज्ञानियों के गुणों को छिपाना पंच ज्ञान की प्रासातना । इन पूर्वोक्त पन्द्रह प्रकार की आसातनाओं का त्याग करना, पन्द्रह की प्रेमपूर्वक भक्ति करना और पन्द्रह के गुणानुवाद करना, इस प्रकार १५४३=४५ भेद अनासातना विनय के समझने चाहिए।
चारित्रविनय के पांच प्रकार हैं-१ सामायिक, २ छेदोपस्थापना, ३ परिहारविशुद्धि, ४ सूक्ष्मसाम्पराय और ५ यथाख्यात चारित्र वालों का विनय करना पाँच प्रकार का चारित्र विनय है।
(१) सम+य+इक-सामायिक । समभाव की प्राप्ति जिससे हो अथवा मन, वचन, काय का सावध (पापयुक्त) प्रवृत्ति से तीन करण तीन