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________________ * प्राचार्य [१७५ (१) अमुक अरिहन्त का नाम लेने से दुःख होता है, धन, स्त्री या पुत्र का वियोग होता है अथवा शत्रु का नाश होता है, इत्यादि शब्द कहना अरिहंत श्रासातना है । (२) जैनधर्म में स्नान तिलक आदि कुछ भी अवलम्बन नहीं है, इस कारण जैनधर्म अच्छा नहीं है, ऐसे शब्द कहना अरिहन्तप्रणीत धर्म की आसातना है। (३) पंचाचार के पालक और दीक्षा-शिक्षा के दाता आचार्यजी वय या बुद्धि में कम हों तो उनका यथोचित विनय न करना प्राचार्य की प्रासातना है। (४) द्वादश अंग आदि शास्त्रों के पाठी अनेक मतमतान्तरों के मर्मज्ञ, शुद्ध संयम से सम्पन्न उपाध्यायजी का अवर्णवाद बोलना और सत्कार-सन्मान न करना उपाध्यायजी की आसातना है । (५) साठ वर्ष की उम्र वाले वयःस्थविर, वीस वर्ष की दीक्षा वाले दीक्षास्थविर और स्थानांग-समवायांग सूत्र अर्थ के ज्ञाता सूत्र-स्थविर इन तीन प्रकार के स्थविरों में से किसी की आसातना करना स्थविरासातना है । (६) एक गुरु के अनेक शिष्य परस्पर एक दूसरे की जो आसातना करें वह कुल-आसातना । (७) सम्प्रदाय के साधु परस्पर एक दूसरे की आसातना करें सो गण-आसातना। (८) साधु, साची, श्रावक और श्राविकारूप संघ की आसातना करना संघ की आसातना है । (8) शास्त्रोक्त शुद्ध क्रिया पालने वाले की प्रासातना करना सो क्रियावंत की प्रासातना (१०) एक मण्डल में बैठकर आहार करने वाले साधु की आसातना करना संभोगी-आसातना । (११-१५) मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनः-पर्थयज्ञानी, तथा केवलज्ञानी इन पांचों ज्ञानियों के गुणों को छिपाना पंच ज्ञान की प्रासातना । इन पूर्वोक्त पन्द्रह प्रकार की आसातनाओं का त्याग करना, पन्द्रह की प्रेमपूर्वक भक्ति करना और पन्द्रह के गुणानुवाद करना, इस प्रकार १५४३=४५ भेद अनासातना विनय के समझने चाहिए। चारित्रविनय के पांच प्रकार हैं-१ सामायिक, २ छेदोपस्थापना, ३ परिहारविशुद्धि, ४ सूक्ष्मसाम्पराय और ५ यथाख्यात चारित्र वालों का विनय करना पाँच प्रकार का चारित्र विनय है। (१) सम+य+इक-सामायिक । समभाव की प्राप्ति जिससे हो अथवा मन, वचन, काय का सावध (पापयुक्त) प्रवृत्ति से तीन करण तीन
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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