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________________ १७४ ] ® जैन-तत्त्व प्रकाश ® (१०) पाराश्चित-शान के वचनों की उत्थापना करने वाले, शास्त्र विरुद्ध प्ररूपण करने वाले और साध्वी के व्रत को भंग करने वाले का वेष परिवर्तित करा कर, जघन्य छह मास और उत्कृष्ट बारह वर्ष पर्यन्त सम्प्रदाय से बाहर रख कर, अनवस्थित प्रायश्चित्त में कहे अनुसार घोर तप करवा कर, गांव-गांव फिरा कर फिर नवीन दीक्षा देना पाराश्चित प्रायश्चित्त कहलाता है । (अन्तिम दोनों प्रायश्चित्त इस काल में नहीं दिये जाते हैं ।) (८) विनय तपः-गुरु आदि पर्याय-ज्येष्ठ मुनियों का, वयोवृद्धों का गुणवृद्धों का यथोचित सत्कार-सन्मान करना विनयतप कहलाता है। विनयतप के सात भेद हैं:-(१) ज्ञानविनय (२) दर्शनविनय (३) चारित्रविनय (४) मनविनय (५) वचनविनय (६) कायविनय और (७) लोकव्यवहारविनय । इनमें से ज्ञानविनय के पांच भेद हैं:-(१) औत्पातिकी* आदि निर्मल बुद्धि रूप मतिज्ञान के धारक का विनय करना । (२) निर्मल उपयोगी, शास्त्रज्ञ अर्थात् श्रुतज्ञानी का विनय करना (३) मर्यादापूर्वक, इन्द्रियों और मन की सहायता के विना रूपी पदार्थों के ज्ञाता अवधिज्ञानी का विनय करना (४) अढ़ाई द्वीप में स्थित संज्ञी जीवों के मनोगत भावों के ज्ञाता मनःपर्याय ज्ञानी का विनय करना और (५) सम्पूर्ण द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के ज्ञाता केवलज्ञानी का विनय करना। यह पाँच प्रकार का ज्ञानविनय है। दर्शनविनय के दो भेद हैं—(१) शुद्ध श्रद्धावान् (सम्यग्दृष्टि) के आने पर खड़े होकर सत्कार करना, आसन के लिए आमन्त्रण करना, ऊँचे स्थान पर बिठलाना, यथोचित वन्दना करके गुणकीर्तन करना, अपने पास जो उत्तम वस्तु हो उसे समर्पित करना, यथाशक्ति, यथोचित सेवा-भक्ति करना .सुश्रूषाविनय है । (२) अनासावनाविनय के ४५ प्रकार हैं । वे इस तरहः ___ * तत्काल उपजने वाली बुद्धि औत्पातिकी, विनय से उत्पन्न होने वाली बुद्धि नयिकी, कार्य करते-करते उत्पन्न होने वाली बुद्धि कार्मिकी और उम्र के अनुसार होने वाली बुद्धि पारिपामिकी बुद्धि कहलाती है।
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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