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से रहित शय्या आदि वस्तु का उपभोग करे (२) क्षेत्र से-आहार-पानी दो कोस से आगे ले जा कर न भोगे (३) काल से खान-पान आदि पदार्थ प्रथम प्रहर में लाकर चौथे प्रहर में न भोगे (४) भाव से-संयोजना आदि मण्डल के पाँच दोषों को नहीं लगाता हुआ आहार पानी आदि का उप
(३३) शंकित-श्राधाकर्म आदि दोषों की शंका होने पर भी ले लेना। (३४) प्रक्षित-हाथ की रेखाओं अथवा पात्र में सचित्त जल थोड़ा-सा लगा हो, फिर भी उससे
आहार ले लेना । (३५) निक्षिप्त-सचित्त पृथी, पानी, अग्नि, वनस्पति, कीडी नगरा आदि पर रक्खा हुअा आहार ले लेना (३६) पिहित-सचित्त वस्तु से ढंकी हुई अचित्त वस्तु ले लेना । (३७) सारहीए-सचित्त वस्तुओं के बीच में रक्खी अचित्त वस्तु लेना । (३८) दायक-अत्यन्त वृद्ध, छोटे बच्चे, नपुसंक, बीमार, खुजली की बीमारी वाले, उन्मत्त, बालक को स्तनपान कराती हुई स्त्री, सात महीने तक की गर्भवती स्त्री आदि अयोग्य दातार के हाथ से आहार लेना (३६) मिश्र-चने के होले, गेहूँ की बाल (उंबी), जवार के पूख, बाजरी के हुरड़े, मक्की के भुट्ठ, इत्यादि मिश्र (अधपके ) पदार्थ ले लेना । (४०) अपरिणततत्काल का धोवन पानी, तत्काल पीसी हुई चटनी (एक मुहूर्त पहले) जब तक वह पूर्णतया अचित्त न हो, उससे पहले ही ले लेना । (४१) लिप्त-कहीं-कहीं गोबर में मिट्टी मिलाकर जमीन लीपी जाती है, अतः उसके सचित्त होने का संशय रहता है। इसके अतिरिक्त पैर रपटने से कदाचित् पड़ जाय अथवा लीपी हुई जमीन बिगड़ जाय तो फिर श्रारंभ हो, इस कारण तत्काल की लीपी हुई जमीन पर चलना दोष है। (४२) छर्दित-जमीन पर बिखेरते बिखेरते, ढोलते-बोलते लाकर देने वाले से लेना । यह दश एषणा के दोष हैं । यह साधु और गृहस्थ-दोनों से लगते हैं।
(४३) संयोजना-भिक्षा लेकर स्थानक में आने के बाद, आहार करते समय स्वाद को बढ़ाने के लिए वस्तु मिला-मिला कर खाना । (४४) अप्रमाण-प्रमाणा से अधिक आहार करना। (४५) इंगाल-स्वादिष्ट भोजन की प्रशंसा करते हुए खाना (४६) धूमनीरस और निस्वाद भोजन की निन्दा करते हुए खाना । (४७) अकारण-आहार के कारणों के बिना आहार करना। आहार के छह कारण बतलाये गये हैं।-(१) क्षधावेदनीय को उपशान्त करने के लिए (२) गुरु, ज्ञानी, रोगी, तपस्वी, बाल और वृद्ध मुनि की सेवा करने के लिए (३) ईर्याससिति का पालन करने-आँख के आरोग्य के लिए (४) संयम का निर्वाह करने के लिए (५) प्राणियों की रक्षा करने–प्रतिलेखन आदि क्रियाएँ करने के लिए और (६) धर्मध्यान, स्वाध्याय आदि करने के लिए। और (१) रोगोत्पत्ति होने पर (२) उपसर्ग होने पर (३) ब्रह्मचर्य रक्षा (४) जीवरक्षा (५) तपस्या तथा (६) अनशन के निमित्त श्राहार का त्याग करना चाहिए । इस प्रकार बिना कारण आहार करना दोष है।
(४८) उग्घाड-कवाड-पाहुडिआए-द्वार खुलका कर आहार लेना (४६) मंडीपाहुडिआएदेवी-देवता को चढ़ाने के लिए बनाया हुआ थाहार लेना (५०) बलिपाहुडिआए-बलि-बाकुल