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* आचार्य
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(५) परिष्ठापनिका समिति- उच्चार-बड़ी नीति (मल) प्रस्रवण लघुनीति-मूत्र, प्रस्वेद (पसीना), वमन, नाक का मेल, कफ, नाखून, बाल, मृतक शरीर आदि अनुपयोगी वस्तुओं को (१) द्रव्य से- यतना से डाले । ऐसी ऊँची जगह न डाले जहाँ से नीचे गिरे या बहे । ऐसी नीची जगह में भी न डाले जहाँ एकत्र होकर रह जाय । ऐसी अप्रकाशित जगह में भी न डाले जहाँ जीव जन्तु दिखाई न दें। ऐसी जगह भी न डाले जहाँ चीटियाँ के बिल हों, अनाज के दाने हों, चीटियाँ या अन्य प्राणी हों; किन्तु जीव-जन्तुओं से रहित भूमि को अच्छी तरह देखकर यतनापूर्वक त्याग करें। (२) क्षेत्र से-जिसकी वह जगह हो उस स्वामी की आज्ञा लेवे । यदि स्वामी न हो और किसी प्रकार के क्लेश की आशंका न हो तो वहाँ शकेन्द्र की आज्ञा लेकर उक्त वस्तुओं को परठ दें। (३) काल से-दिन में अच्छी तरह देख-भाल कर निरवद्य भूमि में परठे और रात्रि के समय, दिन में पहले ही देख रक्खी हुई भूमि में परठे । (४) भाव से-शुद्ध उपयोगपूर्वक यतना से परठे । (मैं आवश्यक कार्य के लिए जाता हूँ इस बात को घोतित करने के निमित्त) जाते समय 'श्रावस्सहि' शब्द तीन बार बोले । परठते समय (स्वामी की आज्ञा को सूचित करने के लिए) 'अणुजाणह मे मिउग्गह' पद बोले । परठने के बाद ( इस वस्तु से अब मुझे कोई प्रयोजन नहीं है, यह सूचित करने के लिए) 'चोसिरामि' पद तीन बार बोले । परठ कर जब अपने स्थान पर वापिस लौटे तब (कार्य से निवृत्त हो गया हूँ, यह प्रकट करने के लिए) 'निस्सही' शब्द तीन बार कहे फिर ईरियावहियं का प्रतिक्रमण करे । ( यह पाँच समितियाँ हुई)
(६) मनगुप्ति—मन, वचन और काय-यह तीनों महान् शस्त्र हैं । किसी-किसी समय घोर पातकमय विचार, उच्चार और प्राचार करके प्रगाढ़ कर्मों का बन्ध कर लेते हैं । इन तीनों में भी मन प्रधान है । मानसिक विचार के अनुसार ही प्रायः वचन और काय की प्रवृत्ति होती है । अतः सर्वप्रथम मन को काबू में करना चाहिए । संरम्भ-अर्थात् किसी जीव को परिताप पहुंचाने का विचार, समारंभ अर्थात् परिताप पहुँचाने की सामग्री जुटाना और आरम्भ अर्थात् परिताप पहुँचाना, इन तीनों से मन को हटा कर, उसे