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* श्राचार्य
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अर्थात्-मूलतः तप दो प्रकार का कहा गया है-(१) बाह्यतप और (२) श्राभ्यन्तर तप । इनमें से बाह्य तप के छह भेद हैं और प्राभ्यन्तर तप के भी छह भेद हैं।
(१) अनशन, (२) ऊनोदरी (३) भिक्षाचर्या (१) रसपरित्याग (५) कायक्लेश और प्रतिसंलीनता, यह छह बाह्य तप हैं। और (१) प्रायश्चित्त (२) विनय (३) वैयावृत्य (वेयावच्च), (४) स्वाध्याय (५) ध्यान और (६) कायोत्सर्गः यह छह आभ्यन्तर तप हैं । बाह्य तप प्रायः प्रत्यक्ष होते हैं और आभ्यन्तर तप प्रायः गुप्त या परोक्ष होते हैं। बाह्य तप की अपेक्षा आभ्यन्तर तप से कर्मों की अधिक निर्जरा होती है । इन बारह तपों का विस्तारपूर्वक वर्णन क्रमशः आगे किया जाता है।
(१) अनशनतप-अशन अर्थात् अन्न, पान अर्थात् जल आदि पेय वस्तु, खाद्य अर्थात् पकवान मेवा आदि, स्वाद्य अर्थात् मुख को सुवासित करने वाले इलायची, सुपारी, चूर्ण आदि पदार्थ, यह चारों प्रकार के पदार्थ यहाँ 'प्रशन' शब्द से ग्रहण किये गये हैं। अशन का अर्थात् पूर्वोक्त चारों प्रकार के आहार का त्याग करना अनशनतप कहलाता है।
अनशनतप मूलतः दो प्रकार का है—(१) इत्तरिय (इत्वरिक) तप अर्थात् काल की मर्यादा युक्त अनशन और (२) आवकहिय (यावत्कथिक)जीवन पर्यन्त के लिए किया जाने वाला अनशन । इनमें से इत्वरिक तप भी छह प्रकार का है-(१) श्रेणीतप (२) प्रतरतप (३) घनतप (४) वर्गतप (५) वर्गावर्गतप और (६) प्रकीर्णक तप ।
चतुर्थभक्त (एक उपवास ), षष्ठभक्त (बेला), अष्टमभक्त (तेला), इस प्रकार क्रम से चढ़ते-चढ़ते पक्षोपवास, मासोपवास, द्विमासोपवास और अन्त में षट्मासोपवास+ करना श्रेणी तप कहलाता है ।
+ छह मास से अधिक का उपवास नहीं होता।