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साथ शरीर का ( शरीर की सेवा का ) भी त्याग करके, वृक्ष से कटी हुई शाखा के समान हलन चलन से रहित होकर, एक ही आसन से जीवन पर्यन्त रहना पादपोपगमन तप कहलाता है । इन दोनों तपों को 'संथारा' भी कहते हैं ।
* आचार्य
(२) ऊनोदरी तप - आहार, उपधि और कषाय को न्यून ( कम ) करना ऊनोदरी तप है । इसके दो भेद हैं-- द्रव्यऊनोदरी और भावऊनोदरी । द्रव्य - ऊनोदरीतप भी तीन प्रकार का है -- [१] वस्त्र- पात्र कम रखना उपकरणऊनोदरी तप है । इनसे ममत्व घटने पर ज्ञान-ध्यान की वृद्धि होती है और विहार सुखपूर्वक होता है, [२] पुरुष का श्राहार बस कवल का माना जाता है। इनमें से आठ कवल आहार करके सन्तोष मानना पौन ऊनोदरी तप है, सोलह कवल लेकर सन्तोष करना बाधा ऊनोदरी तप और चौबीस ग्रास लेकर सन्तोष धारण करना पाव ऊनोदरी तप है । ३१ कवल लेकर संतोष करना किंचित् ऊनोदरी तप है । कम आहार करने से प्रमाद में कमी होती है और शरीर नीरोग रहता है । बुद्धि की वृद्धि आदि और भी अनेक गुणों की प्राप्ति होती है । क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, चपलता आदि दोषों को कम करना भाव ऊनोदरी है ।
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(३) भिचाचर्या – सम्मुदानी (बहुत घरों से थोड़ी-थोड़ी भिक्षा लाकर उससे अपने शरीर को उपष्टम्भ (सहारा) देना भिक्षाचर्यातप कहलाता है । जैसे गौ जंगल में जाकर ऊपर-ऊपर का थोड़ा-थोड़ा घास खाकर अपना निर्वाह करती है, उसी प्रकार साधु भी बहुत घरों से थोड़ा-थोड़ा आहार लेकर शरीर को संयम पालन के योग्य बनाये रखते हैं । इस कारण साधु की भिक्षा ' गोचरी' भी कहलाती है । दशवैकालिकसूत्र के प्रथम अध्ययन में कहा है:
वयं च वित्तिं लब्भामो, ण य कोई उवहम्मइ । श्रहागडे रीयंते, पुप्फेसु भमरो जहा ॥
अर्थात- गृहस्थ अपने सुख- सुभीते के लिए बगीचा लगाता है । उसमें अचिन्तित रूप से भौंरा पहुँच कर, फूलों को तनिक भी कष्ट नहीं