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® जैन-तत्त्व प्रकाश
धर्मध्यान और शुक्लध्यान में लगाना मन-गुप्ति है । मन-गुप्ति से कर्मबन्ध रुकता है और आत्मा की निर्मलता बढ़ती है ।
(७) वचन-गुप्ति-संरम्भ आदि का प्रतिपादन करने वाले पचन को त्याग कर, प्रयोजन होने पर उचित, सत्य, तथ्य, पथ्य, निर्दोष और परिमित वचनों का उच्चारण करना और प्रयोजन न होने पर मौन धारण करना वचनगुप्ति है । वचनगुप्ति का पालन करने से आत्मा सहज ही अनेक प्रकार के दोषों से बच जाती है । अतः वचनगुप्ति का निरन्तर अभ्यास करना चाहिए।
(८) कायगुप्ति-संरंभ, समारम्भ और आरम्भ से काय को निवृत्त करके उसे तप, संयम, ज्ञानोपार्जन आदि संवर और निर्जरा उत्पन्न करने वाले कार्यों में लगाना कायगुप्ति है । इस प्रकार पांच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ मिल कर चारित्र के आठ आचार हैं। आचार्य महाराज इन आठों का निर्दोष रूप से स्वयं पालन करते हैं और दूसरे मुनियों से पालन कराते हैं।
[४] तप के बारह आचार
मिट्टी श्रादि से मिश्रित स्वर्ण जैसे अग्नि में तपाने से शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार कर्म रूपी मैल से मलीन आत्मा, तपश्चर्या रूपी अग्नि में तप कर शुद्ध हो जाता है-अपने असली स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । कर्म रूपी मैल को गलाने की जैसी तीव्र शक्ति तपस्या में है, वैसी अन्य में नहीं । श्रीउत्तराध्ययन और औपपतिक सूत्र में तप के भेद-प्रभेद इस प्रकार किये हैं :
सो तवो दुविहो वुत्तो, एवमब्भन्तरो तहा। बाहिरो छव्विहो वुत्तो, एवमब्भन्तरो तवो ॥१॥ अणसणमूणोयरिया,भिक्खायरिया य रसपरिचाओ । कायकिलेसो संलोणया य बन्झो तवो होइ ॥२॥ पायच्छित्तं विणो, वेयावच्चं तहेव सन्झाओ। झाणं च विउत्सग्गो, एस अन्भिन्तरो तवो ॥३॥