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* प्राचार्य
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मान
उपयोग में आने वाले, जैसे-रजोहरण और मुखवस्त्रिका आदि। इन्हें 'उग्गहिक' कहते हैं (२) जो कभी-कभी प्रयोजन होने पर काम में आवें जैसे - पाट आदि । इन्हें 'उपग्रहिक' कहते हैं। साधु-शास्त्र के अनुसार अधिक से अधिक इतने उपकरण रख सकते हैं:-(१) काष्ठ (२) तूम्बा और (३) मिट्टी के पात्र, आहार, पानी और औषध आदि ग्रहण करने के लिए तथा जिससे किसी जीव की हिंसा न हो, ऐसे ऊन के, अंबाडी के या सन का रजोहरण भूमि आदि की प्रमार्जना करने के लिए रक्खे । आचारांगसूत्र में कहा है कि अँभाई, छींक और श्वासोच्छ्वास से जीवहिंसा होती है । इस लिए साधु को आठ पुड़ की वस्त्र की मुखपत्ती, डोरा डाल कर रात-दिन लगाये रहना चाहिए। साधु ऊन, सूत, रेशम और सन के, सिर्फ सफेद रंग के प्रमाणोपेत तीन चादर ओढ़ने के लिए रक्खे, पहनने के लिए चोलपट्ट रक्खे, बिछाने के लिए एक वस्त्र रक्खे, वस्त्र, पात्र और शरीर पर रहे हुए जीवों का प्रमार्जन करने के लिए रजोहरण जैसा ही एक गुच्छक रक्खे । मोरी आदि में मूत्रआहार लेना (७६) कान्तारभक्त-अटवी का उल्लंघन करके आये हुए लोगों के निमित्त बना भोजन लेना (८०) दुर्भिक्षभक्त-दुष्कालपीडित लोगों के लिए बना भोजन लेना (८१) ग्लानभक्त-खेगी के लिए बना श्राहार उसके खाने से पहले लेना । (८२) बदलिकाभक्त-वर्षा में गरीबों को देने के निमित्त बनाया हुश्रा भोजन लेना। (८३) रजोदोषबेचने के लिए खुला रक्खा हुआ-सचित्त रज वाल। आहार लेना (यह ६ दोष आचारांग सूत्र में कहे हैं।) (८४) रयतदोष-जिसका वर्ण, रस, गंध, स्पर्श बदल गया हो-चलित रस हो, ऐसा आहार लेना (८५) स्वयंग्रह-गृहस्थ के घर से अपने हाथ से उठा कर लेना। (गृहस्थ की आज्ञा से पानी अपने हाथ से लेने की मनाई नहीं है)। बहिर्दोष-घर से बाहर खड़ा रख कर गहस्थ भीतर से लाकर दे तो ले लेना । (८७) मोरंच-दाता का गुणानुवाद करके लेना (८८) बालट्ठ-बालक के लिए बना आहार उसके खाने से पहले लेमा (यह पाँच दोष प्रश्नव्याकरण सूत्र में कहे हैं)। (८८) गुम्विणी अट्ठ-गर्भवती स्त्री के लिए बनाया हुआ आहार उसके खाने से पहले ही ले लेना। (१) अडवीभत्त-अटवी पर्वत श्रादि के नाके पर बनी हुई दानशाला से आहार लेना । (६२) अतित्थभक्त-गृहस्थ भिक्षा मांगकर लाया हो- उससे भिक्षा लेना। (४३) पासत्थ भत्त-आचारभ्रष्ट, वेष मात्र से भाजीविका करने वाले साधुवेषी से भिक्षा लेना (६४) दुगंछभत्त--जूठन आदि अयोग्य आहार लेना। (४५) सागारियनिस्सीया-गृहस्थ की सहायता से श्राहार-पानी लेना । (यह ७ दोष निशीथ सूत्र में कहे हैं) (६६)परियासिय-भिखारियों को दान देने के लिए रक्खा आहार भिखारियों केन-बाने पर साधुओं को दिया जाने वाला आहार लेना । यह निशीथ और बृहत्कल्प में कहा है।) इन दोषों को टालकर साधु आहार वस्त्र पात्र आदि ग्रहण करे।