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________________ * आचार्य [१५६ (५) परिष्ठापनिका समिति- उच्चार-बड़ी नीति (मल) प्रस्रवण लघुनीति-मूत्र, प्रस्वेद (पसीना), वमन, नाक का मेल, कफ, नाखून, बाल, मृतक शरीर आदि अनुपयोगी वस्तुओं को (१) द्रव्य से- यतना से डाले । ऐसी ऊँची जगह न डाले जहाँ से नीचे गिरे या बहे । ऐसी नीची जगह में भी न डाले जहाँ एकत्र होकर रह जाय । ऐसी अप्रकाशित जगह में भी न डाले जहाँ जीव जन्तु दिखाई न दें। ऐसी जगह भी न डाले जहाँ चीटियाँ के बिल हों, अनाज के दाने हों, चीटियाँ या अन्य प्राणी हों; किन्तु जीव-जन्तुओं से रहित भूमि को अच्छी तरह देखकर यतनापूर्वक त्याग करें। (२) क्षेत्र से-जिसकी वह जगह हो उस स्वामी की आज्ञा लेवे । यदि स्वामी न हो और किसी प्रकार के क्लेश की आशंका न हो तो वहाँ शकेन्द्र की आज्ञा लेकर उक्त वस्तुओं को परठ दें। (३) काल से-दिन में अच्छी तरह देख-भाल कर निरवद्य भूमि में परठे और रात्रि के समय, दिन में पहले ही देख रक्खी हुई भूमि में परठे । (४) भाव से-शुद्ध उपयोगपूर्वक यतना से परठे । (मैं आवश्यक कार्य के लिए जाता हूँ इस बात को घोतित करने के निमित्त) जाते समय 'श्रावस्सहि' शब्द तीन बार बोले । परठते समय (स्वामी की आज्ञा को सूचित करने के लिए) 'अणुजाणह मे मिउग्गह' पद बोले । परठने के बाद ( इस वस्तु से अब मुझे कोई प्रयोजन नहीं है, यह सूचित करने के लिए) 'चोसिरामि' पद तीन बार बोले । परठ कर जब अपने स्थान पर वापिस लौटे तब (कार्य से निवृत्त हो गया हूँ, यह प्रकट करने के लिए) 'निस्सही' शब्द तीन बार कहे फिर ईरियावहियं का प्रतिक्रमण करे । ( यह पाँच समितियाँ हुई) (६) मनगुप्ति—मन, वचन और काय-यह तीनों महान् शस्त्र हैं । किसी-किसी समय घोर पातकमय विचार, उच्चार और प्राचार करके प्रगाढ़ कर्मों का बन्ध कर लेते हैं । इन तीनों में भी मन प्रधान है । मानसिक विचार के अनुसार ही प्रायः वचन और काय की प्रवृत्ति होती है । अतः सर्वप्रथम मन को काबू में करना चाहिए । संरम्भ-अर्थात् किसी जीव को परिताप पहुंचाने का विचार, समारंभ अर्थात् परिताप पहुँचाने की सामग्री जुटाना और आरम्भ अर्थात् परिताप पहुँचाना, इन तीनों से मन को हटा कर, उसे
SR No.010014
Book TitleJain Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherAmol Jain Gyanalaya
Publication Year1954
Total Pages887
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size96 MB
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