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® प्राचार्य
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करके, रजोहरण से भूमि का प्रमार्जन करता हुआ, दिन में भलीभाँति देखे हुए स्थान में निवृत्ति करके तत्काल स्वस्थान पर आ जाय । (३) मार्गउन्मार्ग में तृण,कचरा,उदेई (दीमक) आदि के घर, कीड़ी नगरा और अस्टश्य भूमि में सचित्तता होने से गमनागमन न करे। ऐसे मार्ग में गमन करने से कंकरों और कंटकों आदि से शरीर को भी बाधा पहुँचती है । (४) यतना-यतना चार प्रकार से होती है।-[१] द्रव्य से-नीची दृष्टि रख कर चलना [२] क्षेत्र से-देह की बराबर आगे मार्ग देखता-देखता हुआ चले। [३] काल से-रात्रि में प्रमार्जन करता हुआ और दिन में देखता चले। [४] भावसे-रास्ता चलते-चलते अन्य कामों को करने से मन दूसरी ओर चला जाता है, जिससे भलीभाँति यतना नहीं होती। अतएव चलते समय दस कार्य न करे--[१]शब्द-वार्तालाप न करे, राग-रागनी न सुनावे,न स्वयं सुने [२] रूप-गृह, तमाशा शृंगार आदि न देखे । [३] गंध-किसी वस्तु को (घे नहीं । [४] रस-किसी वस्तु का भक्षण न करे । स्पर्श-कोमल और कठोर स्थानों में तथा शीत-उष्ण आदि का संयोग होने पर परिणाम स्थिर रक्खे । [६] वाचना-पठन न करे। [७] पृच्छना-प्रश्न आदि न करे । [८] परिवर्तना-पढ़े हुए की आवृत्ति न करे । [६] अनुप्रेक्षा-पठन किये हुए का चिन्तन न करे [१०] धर्मकथा-उपदेश न करे।।
[२] भाषासमिति—यतनापूर्वक बोलना । भाषासमिति के चार प्रकार हैं:-[१] द्रव्य से-कर्कश, कठोर, छेदक, भेदक, हिंसक, पीडाकारी, सावद्य, मिश्र, क्रोधकारक, मानकारक, मायाकारक, लोभकारक, रागकारक, द्वेषकारक, मुखकथा (अप्रतीतिकारक सुनी-सुनाई) और विकथा [स्त्रीकथा, भोजनकथा, राजकथा और देश-देशान्तर की फालतू बातें], यह सोलह प्रकार की भाषा न बोलना। [२] क्षेत्र से-रास्ता चलते वार्तालाप न करे । [३] काल से-पहर रात्रि बीतने के बाद बुलन्द आवाज से न बोलना; क्यों कि संभव है किसी की निद्रा टूट जाय तो उसे दुःख हो अथवा वह आरंभ या कुकर्म में लग जाय । या छिपकली आदि हिंसक जीव, जीवधात में प्रवृत्त हों। [४] भाव से-देशकाल के अनुकूल सत्य, तथ्य और शुद्ध वचन बोले।