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* जैन-तत्त्व प्रकाश
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(७) वात्सल्य -- जैसे गाय अपने वछड़े पर प्रीति रखती है, उसी प्रकार स्वधर्मी जनों पर प्रीति रखना, रोगी को औषधोपचार से तथा वृद्धों को, ज्ञानियों को, बालक को, तपस्वी को आहार, वस्त्र, पात्र, स्थान आदि आवश्यक वस्तुओं से सहारा देकर, उनके हाथों-पैरों और पीठ आदि का मर्दन करके साता उत्पन्न करना वात्सल्य आचार कहलाता है ।
(८) प्रभावना -- यद्यपि जैनधर्म अपने गुणों से स्वयं ही प्रभावशील - प्रभाविक है, तथापि दुष्कर क्रिया, व्रताचरण, अभिग्रह, कवित्वशक्ति, पाण्डित्य, और व्याख्यानशक्ति आदि के द्वारा धर्म की प्रभावना करना एवं धर्म सम्बन्धी श्रज्ञान को दूर करना प्रभावना आचार कहलाता है । दर्शन सम्बन्धी इन चारों का आचार्य स्वयं पालन करते हैं और दूसरों से पालन करवाते हैं । इनके पालन से सम्यग्दर्शन पूर्ण और पुष्ट होता है ।
चारित्र के आठ आचार
क्रोध आदि चारों कषायों से अथवा नरक आदि चारों गतियों से आत्मा को बचा कर मोक्ष गति में पहुँचावे, वह चारित्राचार कहलाता है । चारित्र के दोषों से यत्नपूर्वक बचकर गुणों को धारण करना चाहिये ।
पणिहाय - जोगजुत्तो, पंच समिईहिं तिहिं गुत्तिहिं । एस चरितायारो, विहो होइ नायव्वो ॥
[१] ईर्यासमिति – र्थात् यतनापूर्वक चलना, इसके चार प्रकार - (१) आलंबन - ईर्यासमिति वाले साधु को ज्ञान, दर्शन, चारित्र का ही अवलंबन है (२) काल - रात्रि में चलने से सूक्ष्म त्रस और स्थावर जीवों की तथा रात्रि में बरसने वाले सूक्ष्म पानी की रक्षा नहीं हो सकती, अतः साधु सूर्यास्त होने से पहले २ ही अवसर के अनुसार मकान या वृक्ष आदि जो भी आश्रय मिल जाय वहीं रह जावे । रात्रि में लघुशंका आदि करने के लिए गमनागमन करने का प्रसंग श्रजाय तो वस्त्र से शरीर आच्छादित