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प्रकार का होता है— सत्य दर्शन या सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन । जिस पदार्थ का जैसा स्वरूप है, उस पर उसी रूप से श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन कहलाता है । जैसे पीलिया रोग के रोगी को श्व ेत पदार्थ भी पीला ही दिखाई देता है, उसी प्रकार सत्य को मिथ्या देखना, मिथ्या रुचि, प्रतीति या श्रद्धा करना मिथ्यादर्शन है । श्राचार्यजी में मिथ्यादर्शन नहीं होता । वे सम्यग्दर्शन से सम्पन्न होते हैं और सम्यग्दर्शन के आठ अंगोंगुण-आचारों से स्वयं युक्त होते हैं तथा दूसरों को भी युक्त बनाते हैं । आठ आचार यह हैं:
जैन-तत्त्व प्रकाश
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निस्संकिय निकंखिय, निव्वितिमिच्छा अमूढदिट्ठीयं । उबवूह - थिरीकरणे, वच्छल्ल- पभावणे अट्ठ
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(१) निःशंकित अपनी अल्पबुद्धि के कारण शास्त्र की कोई बात समझ में न आवे तो शास्त्र पर शंका न करे । अनन्तज्ञानियों द्वारा प्रणीत, समुद्र के समान गहन वचन, अपनी लोटे जैसी तुच्छ बुद्धि में यदि न समावें तो क्या आश्चर्य है ? रत्न की कीमत से अनभिज्ञ होने के कारण . लोग जौहरी की बात पर प्रतीति रखते हैं और उसकी बतलाई हुई कीमत के अनुसार ही बर्ताव करते हैं, उसी प्रकार जिन भगवान् के वचनों पर भी भरोसा रखना चाहिए, वीतराग भगवान् कभी भी न्यून – अधिक असत्य उपदेश. नहीं देते हैं । उनके अनन्त केवलज्ञान में जिस प्रकार पदार्थ प्रतिबिम्बित हुए हैं उसी प्रकार उन्होंने प्रकाशित किये हैं । इस प्रकार का दृढ़ विश्वास रखना निःशंकित चार कहलाता है ।
(२) निःकांक्षित - मिथ्या मतावलंबियों के गान, तान, भोग, विलास, महिमा, पूजा, चमत्कार, आदि आडम्बर देखकर उस मत को स्वीकार करने की अभिलाषा न करना और यह भी न कहना कि ऐसा अपने मत में होता तो अच्छा था । क्योंकि मिथ्यात्व - ढोंग से आत्मा का कल्याण नहीं हो सकता । आत्मा का उद्धार तो बाह्य और आभ्यन्तर त्याग, से, तथा इन्द्रियदमन से, ही होगा ।