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ॐ जैन-तत्व प्रकाश ®
के निमित्त) दोषों का निवारण करके यथोक्त काल में शास्त्र का पठन करना ।
(२) विनय-जिनशासन का मूल विनय ही है। अतः ज्ञानी की आज्ञा में रहकर उन्हें आहार, वस्त्र, पात्र, स्थान आदि के द्वारा यथोचित साता पहुँचाना, वे जब शास्त्र का व्याख्यान करें तब आदर और एकाग्रता के साथ उनके वचनों को तथ्य कह कर स्वीकार करना, ज्ञानदायक साहित्य पुस्तक आदि को नीचे और अपवित्र स्थान में न रखना । इस प्रकार विनयपूर्वक ग्रहण किया हुआ ज्ञान सुलभ और चिरस्थायी होता है ।
(३) बहुमान-गुरु आदि ज्ञानदाता का बहुत आदर करना और ३३ अासातनाओं* का त्याग करना।
* तेतीस पासातनाएँ इस प्रकार टालना चाहिए:
(१-२-३) गुरु आदि ज्येष्ठों के आगे, पीछे और बराबर न बैठे। (४-५-६) गुरु श्रादि के आगे, पीछे या बराबरी पर खड़ा न रहे। (७-८-९) गुरु आदि के आगे, पीछे या बराबर न चले । (१०) गुरु से पहले शुचि न करे । (११) गुरु से पहले ईर्यावही का प्रतिक्रमण न करे । (१२) गुरु किसी से वार्तालाप करते हों तो पहले उससे बात न करे। (१३) लेटे हुए शिष्य को गुरु बुलावें और जागता हो तो तत्काल उठ कर उत्तर दे (१४) अतीत का सब वृत्तान्त ज्यों का त्यों गुरु से कह दे। (१५) याचना करके लाई हुई वस्तु पहले गुरु को दिखलावे । (१६) प्रत्येक वस्तु के लिए पहले गुरु को आमंत्रित करे-ग्रहण करने को कहे । (१७) गुरु की आज्ञा लेकर कोई वस्तु दूसरों को दे। (१८) अच्छी २ वस्तु गुरु को दे। (१६) गुरु का वचन सुना अनसुना न करे। (२०) आसन पर बैठा २ उत्तर न दे। (२१) गुरु आदि के लिए तू, श्रादि तुच्छ शब्दों का प्रयोग न करे । (२२) गुरु आदि के लिए 'आप' 'भगवान्' आदि उच्च शब्दों का प्रयोग करे । (२३) गुरु-शिक्षाओं को हितकर समझे और उन्हें माने । (२४) गुरु की आज्ञा से रोगी, तपस्वी तथा बाल साधु की सेवासुश्रूषा करे। (२५) गुरु की भूल-चूक: किसी दूसरे के सामने प्रकट न करे । (२६) गुरु की आज्ञा के विना, गुरु की मौजूदगी में, किसी के प्रश्नों का उत्तर आप स्वयं न दे। (२७) गुरु की महिमा सुन कर प्रसन्न हो । (२८) यह मेरी परिषद् और यह गुरु की परिषद्, इस प्रकार का भेद न डाले । (२६) गुरुजी बहुत देर तक व्याख्यान चलावे तो अन्तराय न डाले । (३०) जिस परिषद् में गुरुजी ने व्याख्यान दिया हो, उसी परिषद् में, उसी विषय पर अपना पाण्डित्य प्रकट करने के लिए विस्तार से व्याख्यान न करे। (३१) गुरु के वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों को, उनकी आज्ञा के बिना अपने काम में न ले । (३२) गुरु के उपकरणों को पैर न लगावे । (३३) गुरु के श्रासन से अपना आसन नीचा रक्खे और नम्रतापूर्वक न्यवहार करे । इन सबका उल्लंघन करना आसातना है ।