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* आचार्य
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(४) उपधान-शास्त्रपठन आरम्भ करने से पहले और पीछे आंबिल आदि तप रूप जो उपधान किया जाता है, उसी के अनुसार शास्त्र का पठन करना।
(५) अनिह्नव-विद्या देने वाले (गुरु) अगर छोटे हों या अप्रसिद्ध हों तो भी उनका नाम नहीं छिपाना और उनके बदले किसी दूसरे बड़े या प्रसिद्ध विद्वान् का नाम न लेना। उनके गुण या उपकार को नहीं छिपाना।
(६) व्यंजन-शास्त्र के व्यंजन, स्वर, गाथा, अक्षर, पद, अनुस्वार, विसर्ग, लिंग, काल आदि जानकर-भलीभाँति समझकर न्यून, अधिक या विपरीत न बोलना । व्याकरण का ज्ञाता हो ।+
(७) अर्थशास्त्र का विपरीत अर्थ न करे और न उसे छिपावे । अपना मनमाना अर्थ भी न करे। ____ (८) तदुभय-मूल पाठ और अर्थ में विपरीत न करे । पूर्ण शुद्ध और यथार्थ पड़े, पढावे, सुने और सुनावे ।
दर्शन के आठ आचार
दर्शन का अर्थ है—देखना, किन्तु यहाँ दर्शन शब्द से श्रद्धा का अर्थ लिया जाता है । दृष्टि, रुचि प्रतीति भी उसे कहते हैं । दर्शन दो
___x आचाराँग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कंध के तीसरे अध्ययन में साधु को १६ प्रकार के वचन का ज्ञाता होना कह यथा-(१) एक वचन-घटः, पटः, मनुष्यः आदि । (२) द्विवचन घटौं, पटौं, मनुष्यों आदि । (३) बहुवचन-घटाः, पटाः, मनुष्याः, इत्यादि । (४) स्त्रीवचन-नदी, नगरी आदि । (५) पुरुषवचन-देव, नर आदि । (६) नपुंसकवचनकमल, मुख आदि । (७) अध्यात्मवचन-जो मन में हो वही बोलना । (८) उत्कर्षवचनगुणानुवाद करना (९) अपकर्षवचन-अवर्णवाद । (१०) उत्कर्ष-अपकर्षवचन-पहले प्रशंसा करके फिर निन्दा करना, जैसे-शक्कर मीठी है पर सर्दी करती है। (११) अपकर्ष-उत्कर्षवचन-पहले बुराई करके फिर प्रशंसा करना, जैसे-नीम कटुक है पर आरोग्यकर है । (१२) भूतकाल वचन-किया, दिया, लिया आदि । (१३) वर्तमान-कालवचन-करता है, लेता है आदि। (१४) भविष्यत्कालवचन-करूँगा, धरूँगा, आदि (१५) प्रत्यक्षवचनयह है आदि। (१६) परोक्षवचन-वह है, आदि। इनमें से यथा योग्य वचन बोलना