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* आचार्य
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[१] काल - दिन के और रात्रि के प्रथम और अन्तिम ४ प्रहर में कालिक और अन्य काल में उत्कालिकसूत्र ३४ सन्भाय + ( स्वाध्याय
* वर्त्तमान काल में स्था० परम्परा में माने जाने वाले ३२ सूत्रों में से ११ अङ्ग, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति और निश्यावलिकापंचक यह सात उपांग, ४ छेद सूत्र और उत्तराध्ययन, यह २३ सूत्र कालिक हैं। शेष ५ उपाँग और ३ मूलसूत्र कालिक हैं। आवश्यक नो-कालिक और नो- उत्कालिक हैं ।
+ ३४ असज्झाय इस प्रकार हैं- (१) उल्कापात - तारा टूटे तो एक मुहूर्त्त तक काय । (२) दिशादाह - प्रातः और सायंकाल तक जब तक लाल रंग के बादल रहें तब तक असझाय। (३) गर्जित - मेघों की गर्जना हो तो एक मुहूर्त्त तक असमाय, (४) विद्युतबिजली चमके तो एक मुहूर्त्त तक सभाय । (किन्तु आर्द्रा नक्षत्र से स्वातिनक्षत्र पर्यन्त गर्जना तथा विद्युत् का असाय नहीं माना जाता) । (५) निर्घात - बिजली कड़कने पर आठ प्रहर तक असझाय । (६) बाल चन्द्र - शुक्ल पक्ष में १-२-३ तिथि की रात्रि में जब तक चन्द्रमा रहे तब तक । (७) यक्षालय - बादलों में मनुष्य, पशु, पिशाच आदि के चिह्न आकृतियाँ - दिखाई देने पर असहाय । (८) धूम्रिका - जब तक काले रंग की घूँवर पड़े तब तक । (६) मिहिका ---श्व ेत रंग की घूँवर पड़े तब तक । (१०) रजपात — जब तक आकाश में धूल का गोटा चढा हुआ दीखे तब तक । (११) मांस -- जब तक मांस दृष्टिगोचर हो तब तक । (१२) श्रोणित- रक्त जबतक दिखाई दे तब तक (१३) अस्थि - जब तक हड्डी दिखाई दे । (१४) उचार - जब तक विष्ठा दिखाई दे (१५) श्मशान के चारों ओर १०००-१००० हाथ तक सज्झाय । (१६) राजमरण-राजा की मृत्यु होने पर जब तक काम-काज बंद रहें तब तक । (१७) राजविग्रह - राजाओं में जब तक युद्ध । 'तब तक (१८) चन्द्रोपराग - चन्द्रग्रहण (१६) सूर्यग्रहण - चन्द्र और सूर्य का खमास हो तो १२ प्रहर और कम पास हो तो कम समय तक असझाय (२०) उपशान्त - पंचेन्द्रिय जीव का मृत कलेवर (मुद्र) पड़ा हो तो उसके चारों ओर १००-१०० हाथ की दूरी तक सज्झाय । (२१)
व शुक्ला पूर्णिमा (२२) कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा (२३) कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा (२४) मार्गशीर्ष कृष्ण प्रतिपदा (२५) चैत्र शुक्ला पूर्णिमा (२६) वैसाख कृष्ण प्रतिपदा (२७) आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा (२८) श्रावण कृष्णा · प्रतिपदा (२६) भाद्रपद शुक्ला पूर्णिमा (३०) अश्विन कृष्ण प्रतिपदा | (इन आठ तिथियों को रात्रि में देवों का गमनागमन अधिक होता है । देवों की भाषा अर्धमागधी होती है। अशुद्ध उच्चारण होने से कदाचित् विघ्न खड़ा हो जाय, इसलिए शास्त्र नहीं पढ़ना चाहिए) । (३१) प्रातःकाल (३२) मध्याह्नकाल और (३३) सन्ध्याकाल और (३४) अर्धरात्रि । इन चारों समयों में भी देवों का गमनागमन अधिक होता है, अतः असझाय गिना है । '
इनं ३४ में से कोई निमित्त होने पर स्वाध्याय करने से तीर्थकुर की आज्ञा के भंग का दोष लगता है, उन्माद या मानसिक विकार होने की भी संभावना रहती है । अतः यह ३४ असा टाल कर शास्त्र पढ़ना चाहिए ।